लेखक की कलम से
बचपन का गलियारा …
सो रही थी गहरी नींद में
मैं ने ख़ुद को सोते देखा
जाग गई तो देखा मैं ने
तभी हुआ था नया सवेरा |
चंदन वन सा,था सुरभित जीवन
खुशियों का था,लहराता पवन
वह धरा थी एक अद्भुत उपवन
कहाँ खो गया वो सुहाना बचपन |
मधुर बाल-स्मृतियां मेरी
अंतस्थ प्रांगण में बिखरीं थीं
उन गुज़रे लम्हों को स्मरण से मैं ने
मेरी आँखों में,वो नाच उठीं |
बचपन की यादें, प्यासे पथिक सी
अंतस में वो समाई थीं
वक्त की परतों में सिमटीं थीं
उसकी काया-पलट हो गई थी |
दुनिया,ज़िन्दगी का कोई ना तजुर्बा
बचपन था या स्वछंद गगन था
बंधन में भी निर्बन्ध सा जीवन
मेरा बचपन ही,मेरा स्वराज था |
अब,वह दुनिया बदल गई है
स्थान की काया- पलट हो गई है
कुछ कहूँ कि मुझसे भूल हुई है
पर आंखें वही स्वरूप देखना चाह रही है ||
©इली मिश्रा, नई दिल्ली