लेखक की कलम से

मुक़ाबिल……

कई प्रस्तावनाएँ थीं
प्रदर्शन करने योग्य
कोमल बालों की गिरह से
छूटे हाथों की हथेलियों में

हथेली कब खाली हो गई रेखाओं से
कोई समय कोई तारीख़ नहीं पता
वीरान ऊंगलियाँ
शोक सभा भी नहीं जुटा पाईं
गिनती रहीं आसन्न पोरों पर
बार-बार रूह की मृत्यु

अक्रान्त क्रंदन से
पेड़ों की सिंचाई सम्भव हो जाए
पर अक्सर
पसीजने की घटनाएँ
वाष्पीकरण का सिद्धान्त अपनाए हैं

मक्खी शहद इकठ्ठा कर सकती है
आदमी कड़वाहट नहीं छोड़ सकता

औरत की हड्डियों से ही बने नुकीले हथियार
नियुक्त किए गए सृजन की हर हत्या के लिए
बताओ ….बन्धु
सृजनकार किस तरह दोषमुक्त माना जाए….

नाल से कटते ही
बिसर जाए जब हर पाप-पुण्य
पैदाइशी जोड़ को देखकर
याद नहीं आए कोई गर्भवती स्त्री
नाभिकीय परीदृश्य देखकर
फड़कती रहें नज़्में शृंगार की

मर्दों की नाल दबाई जाती रहे मकानों की नींव में
भर दी जाए खिलौनों में
औरत के जोड़ों की अस्थिमज्जा

क्रीड़ाएँ हर्षकारी होती रहें तो…
संघर्ष प्रभुत्वकारी होगा
उस दिन
जब एक दिन
औरत की नाल
दधीच की हड्डियों के मुक़ाबिल होगी ….!!!

©पूनम ज़ाकिर, आगरा, उत्तरप्रदेश

Back to top button