लेखक की कलम से

रंग और रेत …

लघुकथा

वह एक तीन वर्ष की बालिका थी । अपने भाइयों के साथ मिलकर रंगोली बना रही थी। माँ के निर्देशानुसार सारे रंगों को चुन चुनकर सांचे पर ड़ाल रही थी। रंगों का बड़ा ही सुन्दर सामंजस्य हो रहा था। और वह इतने सधे हाथ से रंग ड़ाल रही थी कि माँ बार बार बिटिया की तारीफ कर रही थी। यह देख भाइयों की बैचेनी बढ़ती जा रही थी, जो अपनी बारी के इंतज़ार में बैठे थे। उनसे नहीं रहा गया तो वे अपने- अपने सांचों में रंग डालकर मनचाही रंगोली बनाने लगे। प्रत्येक वस्तु पर एकाधिकार समझने वाली उस चंचल बालिका से यह सहन ना हुआ और उसने सारे रंगों को मिला दिया। सुन्दर सजी रंगोली एक नीरस से रेत के ढेर में पल भर में तब्दील हो गयी । उसे देख दोनों भाइयों का मुँह उतर गया। उनकी आशाओं और सुन्दर कल्पनाओं  को एक पल में धराशायी कर दिया था उस नन्ही सी चपला ने।

तो भी.. बालमन.. कैसा होता है..। कुछ क्षण की खिन्नता के बाद, बहन द्वारा रंग हीन  किये गए उस बालुई पदार्थ से ही वे खेलने लगे। तभी एक भाई ने कौतूहल भरे स्वर में पूछा ;

“माँ, सारे रंगों ने मिलकर कौनसा रंग बना दिया है? ”

“अरे देख ना,  यह तो रेत का रंग हो गया है। ”

माँ के उत्तर से पूर्व ही दूसरा भाई ने उत्तर दे दिया और तीनों उसी से खेलने में लग गए। रंगों की किसी को सुध नहीं थी।

अगले दिन बारिश के बाद मौसम सुहावना हो गया था। वे सब मंदिर में दर्शन को गए थे। परिसर में बालू देख वह बालिका सब भूल उसमें खेलने में मगन हो गयी। सबने उसे वहाँ से निकालने के प्रयास कर लिए पर वह ठहरी मनमौजी.. नहीं आयी। तभी आसमान में इंद्रधनुष अपनी छटा बिखेरने लगा।

माँ ने हर्षित स्वर में पुकारा, ” आ लाडो, तुझे रेनबो (इंद्रधनुष ) दिखाती हूँ। ओह.. ! देख कितने सारे रंग..। ”

“माँ, सारे रंग इसमें ही तो होते हैं.. देखो..। ”

वह हाथों में भरकर रेत उड़ाते हुए अद्भुत सी खिलखिलाहट बिखेरते हुए चहक रही थी।  उसको आभास ही नहीं था कि जीवन के किस सत्य का खेल खेल में उसने वर्णन किया है।वह पुनः खेल में मग्न हो गयी। माँ निशब्द हो अपलक उसे देख रही थी।

 

©भारती शर्मा, मथुरा उत्तरप्रदेश          

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