आहिस्ता आहिस्ता …
अहसास की दीवार से कान लगाए बैठी रही ख़ामोशी दालान में रात भर
और
उस पार दरियाफ्त करता रहा हो हाकिम कोई तमाम दिन ….. आहिस्ता आहिस्ता
किसी पुराने टीन के बक्से में से कुछ सामान टटोला जाता रहा रात भर
जैसे
बरसों से छूटे किसी अधूरे सफ़र की तैयारी कर रहा हो कोई
..आहिस्ता आहिस्ता
कुछ जुमले एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए हर आहट पर डरते ही रहे
जैसे
अवमानना और अवहेलना के सिपाही धर दबोचेंगे किसी भी लम्हे … आहिस्ता आहिस्ता
किसी खूंटी पर उल्टी सीधी टंगी मेरी अस्मिता ने यूं अंगड़ाई ली
जैसे बरसों बाद गिरफ्त से निकल कर चलने की कोशिश में हो कोई ।
कुछ उन्निंदी सी उम्मीदें ,कुछ भिंचे हुए ख्वाब अंधेरे में देखने की कोशिश करते रहे रात भर
जैसे लंबी बारिश से सीले हो गए कागज़ो को धूप दिखा रहा हो कोई।
…….आहिस्ता आहिस्ता।
बेशक पांव के नीचे ज़मीन भी नहीं मेरे पर क्षितिज के उस पार जाने की तमन्ना अब भी मेरे हौसलों को थपथपाती है…
आहिस्ता आहिस्ता
अब तो कश्ती डाल ही दे मुख़ाफलात के समंदर में
तू बन कर खुद का खिवैया
तेरे बुलंद हौसलों का तूफ़ान बदल ही देगा इस दफा समंदर का खिलापती रवैया
.. आहिस्ता आहिस्ता ।
©सुदेश वत्स, बैंगलोर