लेखक की कलम से

झूठी पहचान…

   कभी कभी,

   काश कि तुम देख पाते,

    इस डर से मेरे अंदर की लड़की।

     मैं वास्तव में जैसी हूँ, वैसी नहीं हूँ।

     मैं सख्त, मजबूत या मतलबी नहीं हूँ।

      वह मैं नहीं हूँ।

    यह मुझमें असली नहीं है।

    मैं दिन रात लड़ती हूँ,

   फिर भी रात को रोती हूँ।

   के माध्यम से कोई नहीं देख सकता है।

   मेरी झूठी पहचान।

   मुझे चोट लगी है।

   जैसा की आप देख सकते हैं।

   तो मैंने बनाया,

  एक नकली मुझे।

  कोई भी कोशिश नहीं करता,

  मेरी हाल के माध्यम से प्राप्त करने के लिए

 मैं जो कुछ भी बनना चाहती हूँ वह मैं हूँ।

 मैं कैसे दिखाऊँ,

सब चुप ?

तुम क्या सोचते हो

अगर तुम्हें दिखाया तो

आप क्या कहेंगे।

मेरी झूठी पहचान के बिना ?

©डॉ. अन्नपूर्णा तिवारी, बिलासपुर, छग

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