लेखक की कलम से

आंधियों का दौर …

परिंदों लौट जाओ आशियानों में

न उड़ो आसमानों में

अँधियों का दौर है

वर्चस्व की दौड़ है

अब खतरे चारों ओर है

अब तो साँसों को पाने की भी होड़ है

तन्हाइयों का दौर है

रिश्तों में भी अब तरन्नुम दिखती नहीं

हसरते अनगिनत पर अब कुछ रस्मे भी निभती नहीं

रिश्तों में प्यार की जगह भार है

अब तो रिश्ते क्या अपनी परछाइयों से भी घबरा रहे

छुप रहे थे अपने में

रख रिश्तों को ताक पर

अब वक़्त ने दिया है एक मौका

रिश्तों को संवारने और निखारने का

अनगिनत ख्वाहिशें और दौड़ का बने थे हम हिस्सा

आज फिर से अपने संस्कार और संस्कृति को पाने का वक़्त आया है

आ लौट चले फिर उस ज़माने में जिस को हमने गवाया है

जहाँ दूरिया की कोई जगह नहीं होती

घर मन्दिर सा होता और बडों की जगह वृद्ध आश्रम में नहीं होती

आ उस आँचल में फिर से छिप जाये जहाँ रिश्तों से दूरिया रूबरू नहीं होती

आ लौट चले उस ज़माने में

आ लौट चले उस ज़माने में

परिंदों लौट जाओ आशियानों में

न उड़ो आसमानों में। …

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