लेखक की कलम से
वसुंधरा कहे पुकार …
छाती मेरी धधक,
रही है,
ये वसुंधरा,
बोल रही है,
तपती रोती चैन,
उड़ी,
मत छेड़ो तुम,
हे! मानव,
स्वार्थ सिद्ध,
की भवना,
से तुम,
पावन वन,
उपवन को,
श्रृंगार मेरे,
उजाड़ चले,
क्रांकिट की जाल,
बुना,
बड़े-बड़े कालोनियों से,
आधुनिकता की,
इस युग में,
ये कैसी,
तरक्की किये,
उद्योगों के काले,
धुएं,
प्रदूषण राक्षस,
प्राण वायु में,
हलाहल घोले,
मेरी कवच को,
फ्लोरो-फ्लोरो,
मोनो कार्बन,
ओजोन परत को,
तुम छेद किये,
सूर्य देव की,
पराबैगनी,
मेरे सीने पर,
है पड़े,
हे! मानव,
डिस्पोजल,
प्लास्टीक,
उपयोग तुम किये,
न सका पचा मैं,
मेरे सीने की,
उर्वरता तुम,
तो नष्ट किये,
अब तो,
ये वसुंधरा,
ग्लोबल वार्मिंग से,
जूझ रहे,
ताल तलैया,
नदी नाले,
अब तो,
सुख रहा,
नीर की,
एक-एक बूंद को,
प्राणी तरस,
रहा,
अब तो चेतो,
हे मानव,
भीम तो ये,
कह रहा,
ये पुकार है,
वसुंधरा की,
वसुंधरा की …
©योगेश ध्रुव, धमतरी, छत्तीसगढ़