लेखक की कलम से

लॉकडाउन में बढ़ रहे हैं बच्चों पर ज़ुल्म, खतरे में है भविष्य …

कोरोना वायरस से बचाव के लिए देश और दुनिया में उपाय के तौर पर लागू लॉकडाउन के दौरान लाखों-करोड़ों बच्चों की हालत बहुत चिंताजनक हो गई है। खासकर अपने देश भारत में उन बच्चों की पीड़ाजनक हालत शब्दों से व्यक्त करना मुश्किल है, जिनके मां-बाप के रोजगार खत्म हो गए हैं, जिन्हें शहरों को छोड़कर गांव की ओर पैदल ही चल देने के लिए मजबूर होना पड़ा। गांव की ओर पैदल जाने वाले लोगों के साथ सिर पर गठरी लादे बहुत से बच्चों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर देखने को मिलीं।  कैसे भूखे-प्यासे उन बच्चों ने सैकड़ों किलोमीटर की सड़कों को नापा ? कैसे अपने पैरों में उग आए फफोलों के दर्द को सहा होगा। इन सब तस्वीरों के सामने आने के बाद भी बच्चों के हित में कुछ खास करने की पहल ना सरकारी स्तर पर की जा रही है और ना ही गैर सरकारी संस्थाओं ने ही उनकी कोई सुध ली है। पैदल चलने वालों में कईयों की रास्ते में ही मौत हो गई। इन मृतकों के अनाथ हो गए बच्चों के सामने खड़ी हो गई समस्याओं पर भी कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही। किसी को उन बच्चों की भी चिंता नहीं सता रही, जिनके मां बाप जात धर्म के झगड़े में मारे जा रहे हैं।

संकट सड़कों पर मारे-मारे फिर रहे बच्चों तक ही सीमित नहीं है। अच्छे खासे घरों के बच्चे भी संकट के घेरे में हैं, उन्हें भी कई तरह की समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। घरों में रहने वाले बच्चे देख रहे हैं कि उनकी माताएं भी सुरक्षित नहीं हैं। वे भी घरेलू हिंसा की शिकार हो रहीं हैं और उनको भी बख्शा नहीं  जा रहा है। इस तरह की शिकायतें सैकड़ों बच्चों ने हेल्पलाइन पर कीं हैं। लॉकडाउन के दौरान चाइल्ड हेल्प लाइन पर बच्चों के आने वाले लाखों कॉल बता रहे हैं कि हम महिलाओं पर ज़ुल्म ढाह रहे हैं और अपने बच्चों को भी नहीं बख्श रहे हैं। वे अपने ही घर में इतने परेशान हो रहे हैं कि उन्हें रक्षा के लिए हेल्प लाइन पर गुहार करनी पड़ रही है। हम अगर बेहतर माता-पिता या अभिभावक होते या बनने की कोशिश करते होते तो आज अचानक घोषित लॉकडाउन के दौरान उनको फरियादी होने की नौबत ही नहीं आती।

अभी हाल ही में इस संबंध में दिल्ली हाईकोर्ट में दायर याचिका में एक एनजीओ ने कहा है कि घरेलू हिंसा और बाल उत्पीड़न की घटनाएं न सिर्फ भारत में, बल्कि ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में भी बढ़ी हैं। यह बात संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कही है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप के बीच अरब क्षेत्र में महिलाओं व बच्चियों को घरेलू हिंसा और सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है और उनकी स्थिति और खराब हो गई है।

एनजीओ ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ ह्यूमन राइट्स, लिबर्टीज एंड सोशल जस्टिस की याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट की एक पीठ ने मुद्दे की जांच के लिए एक उच्चस्तरीय समिति गठित करने को कहा है और सुनवाई की अगली तारीख 24 अप्रैल तय की है। उधर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसएस बोबडे को पत्र लिख कर दो वकील समीर सोढी और आरजू अनेजा ने आग्रह किया है कि वे बच्चों की सुरक्षा का स्वत: संज्ञान लें। इन वकीलों ने पत्र में कहा है कि मौजूदा लॉकडाउन के दौरान भारत में बाल उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ चुकी हैं और पीड़ित बच्चों के सहयोग एवं सुरक्षा के लिए तत्काल कोई कदम नहीं उठाया गया तो यह और बढ़ सकता है।

कोराना वायरस का संकट कभी खत्म भी हो जाएगा लेकिन इस पर कोई चिंतन करने की जरूरत नहीं समझी जा रही है कि हम आज जिस तरह के बर्बर समाज में तब्दील होते जा रहे हैं, उसमें हमारी नई पीढ़ी भविष्य में किस तरह की नागरिक बनेगी? मानवीय और संवेदनशील बनेगी या हिंसक आक्रमक और विध्वंसक बनेगी! यह सवाल हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है। हैरानी की बात है कि विभिन्न मीडिया में कोरोना से बचाव के बारे में अनेक विज्ञापन जारी हो रहे हैं और अलग से अपील भी की जा रही है लेकिन महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के संबंध में कोई अपील नहीं की जा रही है।

लॉकडाउन के दौरान लाचार और असहाय लोगों की मदद के लिए अनेक हाथ बढ़ाए जा रहे हैं। बहुत से लोगों ने मौजूदा संकट में मानवता की मिसालें कायम की हैं और कर भी रहे हैं। इनमें देश के कुछ इलाकों में बहुत से बच्चों ने भी अपने पॉकेट खर्च के पैसे लोगों की राहत के लिए सौंप दिए। बच्चों की यह पहल बताती है कि अच्छे काम करने में वे भी पीछे नहीं हैं लेकिन इसके बावजूद बच्चों के हित में सामूहिक तौर पर कोई कारगर पहल नहीं की जाती। सच कहा जाए तो सामान्य समय में भी बच्चों की कठिनाइयों को लेकर पूरी गंभीरता से सरकारें कुछ खास नहीं करतीं क्योंकि बच्चे मतदाता की हैसियत नहीं रखते और यही वजह है कि उनकी समस्याएं कभी चुनाव के मुद्दे भी नहीं बनतीं। इसलिए देश और दुनिया में मौजूदा संकट के दौर में सभी लोगों के साथ खासकर बच्चों की समस्याओं को लेकर चिंता का बढ़ना स्वाभाविक है। समस्या नवजात बच्चों की भी है, जिन्हें जन्म के पहले साल में विभिन्न रोगों से बचाने के लिए टीका लगाना जरूरी है जो लॉकडाउन के कारण संभव नहीं हो पा रहा है।

फिलहाल ताजा स्थिति यह है कि लॉकडाउन की घोषणा के तुरंत बाद चाइल्ड हेल्पलाइन इंडिया 1098 पर बच्चों के फोन कॉल्स की संख्या में अचानक 50 फीसदी ज्यादा बढ़ोतरी हो गई। चाइल्ड लाइन  इंडिया के अधिकारियों के मुताबिक पिछले 20 मार्च से 31 मार्च के बीच करीब तीन लाख फोन कॉल आए, जिनमें 30 फीसदी केवल उन बच्चों के हैं, जो अपने ही घरों में ही हिंसा और उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं यानी 95000 बच्चे हिंसा और उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं। यह संख्या चिंताजनक है, जिसकी जानकारी चाइल्ड हेल्पलाइन इंडिया के अधिकारियों ने दी। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अधिकारियों की मौजूदगी में आयोजित एक कार्यशाला में जानकारी देते हुए चाइल्ड लाइन इंडिया के अधिकारियों ने कहा कि 11 दिन के भीतर आए तीन लाख कॉल में शारीरिक स्वास्थ्य के मामले में 11 फीसदी, बाल श्रम के 8 फीसदी, घर से भागे बच्चों के बारे में 8 फीसदी, बेघर बच्चों के बारे में पांच फीसदी फोन कॉल थे। बढ़ते अत्याचार के मद्देनजर कुछ  बच्चों के लिए कार्यशील संगठनों ने प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर आग्रह किया है 1098 को टोल फ़्री नंबर बनाया जाए और संकट के मद्देनजर इस नंबर को बच्चों के माता-पिता, अभिभावक और उनकी देखभाल करने वालों के लिए आपात नंबर बनाया जाए।

समस्याएं उन बच्चों की भी है, जो नवजात हैं। लॉकडाउन के कारण उन्हें विभिन्न रोगों खसरा और निमोनिया आदि रोगों से टीके नहीं लगाए जा रहे हैं। युवा माता पिता को उम्मीद थी कि 14 अप्रैल के बाद यह संभव होगा लेकिन लॉकडाउन की अवधि बढ़ जाने से चिंता में पढ़ गए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक नवजात बच्चों की समस्याएं बढ़ गई हैं। 37 देशों के करीब 12 करोड़ बच्चों को खसरा का टीका नहीं लग पाया है। खसरा भी एक संक्रामक रोग है। खसरे के टीके के मामले में 24 देश पहले से ही लक्ष्य पूरा करने में पिछड़ गए हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक खसरा का टीका मौजूद रहने के बावजूद 2018 में दुनिया भर में एक लाख चालीस हजार बच्चे मौत के मुंह में समा गए थे। युवा माता पिता सहित डॉक्टर इस संबंध में सरकार के निर्देशों का इंतजार कर रहे हैं,क्योंकि लॉकडाउन के दौरान टीकाकरण अस्थाई तौर पर बंद कर दिया गया है।

इसी के साथ विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ ने आशंका जताई है कि लॉकडाउन के दौरान ज्यादातर बच्चे ऑनलाइन होते हैं इस कारण उन पर ऑनलाइन यौन उत्पीड़न के खतरे बढ़ गए हैं। यह भी कहा जा रहा है कि लॉकडाउन के दौरान बच्चे चिड़चिड़े हो रहे हैं और आक्रामक भी ही रहे हैं, क्योंकि उनके स्कूल बंद हैं और पास के पार्क में जाना मना है। खेल, संगीत और नृत्य के केंद्र भी बंद हैं। 24 घंटे घर पर रहने की मजबूरी है। माता-पिता ज्यादा टोका-टोकी कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि समय के हिसाब से माता पिता को भी अपने पुराने रवैए बदलने चाहिए।

©हेमलता म्हस्के, पुणे, महाराष्ट्र

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