लेखक की कलम से
धारा …
चट्टान के सीने से
लगकर…
उसकी पीठ पर
लहराती वो…
मधुरस छलकाती वो
मादक बल खाती वो
संसर्ग सहज ही
कर जाती है…
उस धारा की हस्ती
कोई क्या जाने
चपल चंचला
प्राण अंचला
पोषक, प्रसन्ना
बंजर से हरियाली
जड़ जाती है…
कोई क्या रोके
उस चपला को जो
हर संकट से लड़ जाती है
सागर के हस्ताक्षर क्यूं भला
नया इतिहास स्वयं का वो
गढ़ जाती है …
©महिमा, धमतरी, छत्तीसगढ़