लेखक की कलम से

दिल्ली बुलेटिन खास : नवमीं पढ़ी कल्पना की हौसले ने उनको पहुंचा दिया आठ कंपनियों के मालकिन तक

प्रेरक व्यक्तित्व …

हमारे देश में महिलाओं की ऐसी भी प्रतिभाएं हैं, जो गरीबी की वजह से कम शिक्षा मिलने के बावजूद अपनी क्षमता को आगे बढ़ाती हुई समाज के बंधनों से मुक्त होकर अपने बल और हिम्मत पर स्वयं को निर्माता बनाती है और साथ साथ देश और समाज का विकास भी कर देती है।

ऐसी ही महिलाओं में से कल्पना सरोज है, जिसने अपने बल पर स्वयं की पहचान बनाई है। कल्पना किसी खानदानी उद्यमी परिवार से नहीं है और न ही कोई अमीर परिवार से है। मात्र नवमीं तक पढ़ी-लिखी कल्पना ने आज आत्मनिर्भर होकर स्वयं की पहचान बना ली है। वर्तमान में कल्पना आठ कंपनियों की मालकिन है। देश के बड़े बड़े उद्यमिता क्षेत्र में उभरता हुआ उनका नाम है। परिस्थितियों से संघर्ष करती आई कल्पना के बुलंद हौसले और उसके जज्बे की सराहना आज चारों तरफ हो रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उनकी कई बार सराहना की है।

कल्पना सरोज का जन्म महाराष्ट्र के अकोला जिले के छोटे से गांव रोपरखेड़ा के एक दलित (बौद्ध) परिवार में 1961 में हुआ। उनके पिता महाराष्ट्र पुलिस विभाग में हवलदार थे। उनका वेतन कम होने के कारण घर की आर्थिक परिस्थिति भी कुछ खास नहीं थी। इसी हालात को लेकर कल्पना गोबर के उपले बनाकर उसे बेचकर घर में अपना योगदान देती थी। कल्पना जब 12 साल की हुई, तब वह पांचवी कक्षा में पढ़ रही थी। उसी दौरान मामा के दबाव में आकर उसकी शादी अपने से दस साल बड़े आदमी से कर दी गई।

कल्पना शादी के बाद विधर्भ से आकर मुंबई की झोपड़पट्टी में रहने लगी। 12 साल की उम्र में न तो कोई समझ रहती है और न ही कोई खास अनुभव। उस छोटी सी उम्र में संयुक्त परिवार होने के कारण 10 से 12 लोगों के पूरे काम का बोझ उस पर डाल दिया गया। इतना ही नहीं, उस पर अत्याचार भी होने लगे।

गलतियां होने पर समय-समय पर कल्पना के साथ मार-पीट भी होती थी। ससुराल के अत्याचार झेलते रहने के कारण उसकी हालत बद से बदतर होती जा रही थी। शादी के छह महीने बाद कल्पना के पिताजी उसे मिलने आए तो पिता को सामने देखकर वह खूब रोने लगी। शरीर पर मारने-पीटने के घाव, उसकी यह दुर्दशा पिताजी को देखी न गई। पिता कल्पना को अपने साथ लेकर चले गए। पिता ने उसे फिर से स्कूल में भर्ती करवा दिया, परंतु समाज को शादीशुदा लड़की को पति का घर छोड़कर स्कूल जाना नहीं सुहाया। लोग तरह-तरह के ताने देने लगे और हालत यहां तक पहुंच गया कि समाज ने कल्पना के परिवार को बहिष्कृत कर दिया। पंचायत ने परिवार का हुक्का-पानी बंद कर दिया। अब तक कल्पना शाररिक और मानसिक रूप से पूरी तरह टूट चुकी थी। जिंदगी के सभी रास्ते बंद नजर आने लगे। परिस्थितियां कठिन होती जा रही थीं। अब तो इस दबाव को झेल पाना कल्पना के लिए कठिन हो रहा था। परेशान होकर एक दिन उसने तीन बोतल कीटकनाशक पी लिया। सही समय पर उपचार मिलने से कल्पना की जान बच गई।

अब तो लोगों के ताने और बढ़ गए। हरेक ताने में उसे यही सुनने मिलता, “महादेव की बेटी ने जरूर ऐसा कुछ किया होगा जिसकी वजह से उसने जहर पी लिया”। उसी दौरान कल्पना के पिता ने उसे टेलरिंग का प्रशिक्षण दिलाया परंतु लोगों के ताने रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। बहुत ही खराब दौर से कल्पना गुजर रही थी। उन सब से तंग आकर उसने दुबारा मुंबई जाने का फैसला किया। उस समय कल्पना की उम्र 16 साल की थी। इस बार कल्पना अपने पति के घर नहीं बल्कि काम करने के सिलसिले में मुंबई जाना चाहती थी। अपने आप के हौसले को बुलंद करना चाहती थी। मृत्यु की चौखट को छूकर वापस आने वाली कल्पना के जीवन में बहुत परिवर्तन आ गया था। अब वह निडर बन चुकी थी। उसकी जिंदगी ने एक नया मोड़ ले लिया था। जब अपने पिता से मुंबई जाने की बात कही तो पिता ने मना कर दिया। किंतु उसकी जिद को देखते हुए आखिरकार पिता भी मान गए।

अब कल्पना मुंबई के दादर झोपड़पट्टी में रहने वाले अपने चाचा के पास आकर रहने लगी। परंतु चाचा को आंखों से कम दिखाई दे रहा था और और ऐसे में झोपड़पट्टी इलाका…। इसमें कल्पना को रखना उचित नहीं है, यह सोचकर चाचा ने उनके पहचान के एक गुजराती परिवार के यहां कल्पना के रहने की व्यवस्था करवा दिया जबकि उस परिवार में पहले से तीन बेटियां थीं। उस परिवार ने कल्पना को चौथी बेटी के रूप में स्वीकार कर लिया। उसी दौरान कल्पना को एक होजिअरी गारमेंट में काम मिल गया। अंदर से टूट चुकी कल्पना को ठीक से मशीन चलाना नहीं आ रहा, यह देखते हुए गारमेंट मालिक ने उसे कपड़े के लटके हुए धागों को काटने का काम दिया। उस काम बदले कल्पना को दो रुपए मिलते थे। इस बीच वहां के कामगार जब खाना खाने जाते तो खाली समय का फायदा उठाकर कल्पना ने अच्छी तरह से मशीन चलाना सीख लिया। दो रुपए की मजदूरी उसके लिए बेहद कम थी। कल्पना ने निजी तौर पर ब्लाउज सीने का काम शुरू किया। तब ब्लाउज की सिलाई दस रुपए थी। कल्पना बताती है कि उस जमाने में लोग साल में दो बार ही कपड़े की जोड़ी खरीदते थे। तो ब्लाउज भी कम ही सिलाने आते थे।

इस बीच गांव में पिता की नौकरी चली गई। परिवार की आर्थिक हालत भी बहुत खराब हो गई। यह बात जब कल्पना को पता चली तो उसने अपने परिवार को मुंबई बुला लिया और कल्याण में एक किराए का घर लेकर उनके साथ रहने लगी। उसी दौरान उसकी छोटी बहन बीमार हो गई। पैसों की कमी के कारण बहन का समय पर इलाज न हो सका और उसकी मौत हो गई। इस बात से कल्पना बहुत दु:खी हुई। जिसके बाद कल्पना ने अपने जीवन से गरीबी मिटाने का फैसला किय और कल्पना के जीवन की असली कहानी यहीं से शुरू हो गई। गांव में सीखे टेलरिंग के हुनर और आत्मविश्वास से स्वयं को मांजती और इस तरह कल्पना 16-16 घंटे तक काम करने लगी।

इसी दौरान कल्पना सरकार के स्वरोजगार योजना के बारे में जानकारी जुटाते हुए खुद का रोजगार शुरू करने के बारे में सोचने लगी। कड़ी मेहनत और संघर्ष के बाद कल्पना को दलित को मिलने वाला 50,000 रुपए का सरकारी अनुदान प्राप्त करने में सफलता मिल गया। इसे लेकर उसने मशीन और कुछ अन्य सामान खरीद लिए। एक बुटीक शॉप खोल दी। बचत पैसों से उल्हासनगर में स्टील फ़र्नीचर स्टोर भी स्थापित कर दिया। इसके साथ ब्यूटी पार्लर भी खोला और साथ रहने वाली लड़कियों को काम भी सिखाना शुरू किया। इस समय कल्पना की उम्र 22 साल थी। इस दौरान उसने स्टील फर्नीचर के एक व्यापारी से शादी कर ली। परंतु बीमारी की वजह से उनका साथ कल्पना को ज्यादा दिन तक नहीं मिल सका और उनका देहांत हो गया। वह पति के पीछे अपने दो बच्चों के साथ रहने लगी। अब व्यवसाय भी अच्छा चल रहा था। बहुत ही कठिन परिस्थितियों का अनुभव करने वाली कल्पना दूसरों के प्रति भी उतनी ही संवेदनशील थी। हमेशा अपने साथ दूसरों का भी भला चाहती थी। गरीब महिलाओं और बेरोजगार युवा के लिए कुछ करने के विचार में सदैव रहती। फिर उसने बेरोजगार संगठन बनाया और बेरोजगार लड़के, लड़कियां और महिलाओं को व्यवसाय शुरू करने के लिए सरकारी अनुदान दिलवाना शुरू किया।

इस तरह जो भी मदद के लिए आते उन लड़के-लड़कियों और महिलाओं को एक प्लैटफॉर्म मिल जाता और अपने-अपने क्षेत्र में वे स्थापित हो जाते। अब तो लोग कल्पना को जरूरतमंद लोगों की मदद करने वाली महिला के रूप में जानने लगे। लोग अपनी समस्या का हल निकालने, कुछ अटके हुए काम करवाने के लिए लोग कल्पना के पास आने लगे।

ऐसे ही एक व्यक्ति अपनी विवादित जमीन के सिलसिले में कल्पना के पास आया। उसकी जमीन पर लोग जबरन कब्जा करना चाहते थे। उस व्यक्ति ने कल्पना को वह जमीन खरीदने को कहा। तब कल्पना को इतने रुपए नहीं थे। फिर उसने कुछ रुपयों का इंतजाम करके वह जमीन खरीद ली और अपने मित्रों की सलाह पर कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में भी आ गई। आगे चलकर अहमदनगर शक्कर कारखाने में भी पैसे लगाए। अब कल्पना को उसके संघर्ष और मेहनत की वजह से मुंबई में भी पहचान मिलने लगी। उसी दौरान कल्पना को पता चला कि 17 साल से बंद पड़ी एक कंपनी “कमानी ट्यूब्स” कई विवादों के चलते 1988 से बंद पड़ी थी और सुप्रीम कोर्ट ने उसके कामगारों से शुरू करने कहा है।

कंपनी के कामगार कल्पना से मिलने आए और कंपनी को फिर से शुरू करने की अपील की। कल्पना ने कड़ी मेहनत और हौसले के बल पर कामगारों के साथ बंद पड़ी कंपनी में जान तो फूंक दी परंतु जब कंपनी संभालने लगी तो पता चला कंपनी के कामगारों को कई सालों से वेतन नहीं मिला था। कंपनी पर करोड़ों का सरकारी कर्जा …। साथ में कंपनी की जमीन पर किराएदार कब्जा कर बैठे थे। मशीनों के कलपुर्जे जंग खा चुके थे। कंपनी 116 करोड़ के कर्ज में डूबी हुई थी कल्पना के सामने समस्या का बड़ा पहाड़ खड़ा था। कल्पना बताती हैं मैंने कोई एमबीए की पढ़ाई नहीं की थी। नवमीं कक्षा तक पढ़ी कल्पना ने हार न मानते हुए कामगार की सलाह, सच्ची लगन और ईमानदारी के साथ वित्तमंत्री से मिलकर एक-एक करके सभी समस्याओं का समाधान निकाल लिया और वर्ष 2006 में कल्पना कंपनी की आधिकारिक चेयरपर्सन घोषित हो गई। उसके इस प्रयास से सारा कर्ज छूटकर 45 करोड़ रुपए तक ही हो गया। आज वही कंपनी का 300 करोड़ से अधिक टर्नओवर है। कल्पना सरोज आज के वर्तमान में 700 करोड़ की मालकिन है।

कल्पना सरोज करोड़ों का टर्नओवर देनेवाली कंपनी ‘कमानी ट्यूब’ की चेयरमैन तो है ही, इसके अलावा कल्पना सरोज कमानी स्टील्स के एस क्रिएशंस कल्पना बिल्डर एन्ड डेव्हलपर्स, कल्पना एसोशिएट्स जैसी दर्जनों कंपनियां है। जिनका रोज का टर्नओवर करोड़ों का है। समाजसेवा और उद्यमिता के लिए कल्पना को पद्मश्री और राजीव गांधी रत्न से सम्मानित किया गया है। इसके अलावा देश विदेश में भी दर्जनों पुरस्कार मिल चुके हैं। कल्पना कहती है मुझे ट्यूब बनाने के बारे में जरा भी जानकारी नहीं थी। ना ही मैनजमेंट आता था, कामगार की सलाह उनके सहयोग और साथ में मेरे बुलंद हौसले, हर चीज को सीखने के जज्बे ने मुझे सफल बना दिया। कल्पना ने उदगीर में भी बॉक्साइट खनन का बिजनेस फैला रखा है। कई खाड़ी देशों में कमानी ब्रांड की शाखाएं हैं। कुवैत में अल-कमानी और दुबई में कल्पना सरोज एलसीसी नामक दोनों कंपनियां इन देशों की कॉपर ट्यूब्स की मांग को पूरा कर रही है। अरब देशों में यह ब्रांड्स बेहद मशहूर है।

©हेमलता म्हस्के, पुणे, महाराष्ट्र
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