लेखक की कलम से

डरो ! कोरोना, डरो !!

 

डरो ! कोरोना, डरो !!

खौफ़ खाओ इंसान से

कि इंसान को मेटने की कुव्वत नहीं,

इंसान के अलावा किसी अन्य जीव में

कितने ही जीव आए और चले गए

 

माना कि सरहदें अलंघ्य नहीं तुम्हारे वास्ते,

तुम पार कर लेते हो बात की बात में

नदी, पहाड़, मैदान, सागर और मरुस्थल

तुम्हें कोरोना कहें कि काल का कराल पाश

 

मगर, इतराओ नहीं

कि ब्रह्मांड में है हर जीव के शब्दकोश में भय,

इसलिए भय खाओ

भय खाओ धरती पुत्रों से

 

पहले भी आए जीवाणु-विषाणु  

मृत्यु की पताकाएं फहराई उन्होंने द्वीपों-महाद्वीपों में

मगर धरती कभी नहीं हुआ उनका विजित साम्राज्य

उन्हें मात दी कभी हाइनरिख कोच, कभी फ्लोर,

कभी एडवर्ड जेनर, कभी अर्न्स्ट चेन,

कभी अलेक्जेंडर फ्लेमिंग, तो कभी लुई पाश्चूर ने

 

डरो,

कोरोना डरो!

अभी निवीर्य नहीं हुई हैं अंतोन लुवेनहॉक की

संततियां

मनुष्य की प्रयोगशालाओं से डरो, कोरोना

डरो कि मनुष्य जाति का कोई न कोई वैज्ञानिक

जल्द-अज-जल्द खोज लेगा तुम्हारा तोड़

और तुम दर्ज हो जाओगे इतिहास की ज़र्द पोथी में।

©डॉ. सुधीर सक्सेना, भोपाल, मप्र

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