कोरोना …
यह क्या कोहराम मचा रखा है?
यों तो तुम छोटे- बड़े
अमीर – गरीब
देश – विदेश
का फर्क नहीं करते
पर ये आदमी(?) की सी फितरत कहाँ से ले आए?
तुझे भी
इनाम ओहदों का चस्का है क्या?
जी हजूरी की आदत हो गई क्या?
सुना है ,
रिश्वत लेने वालों और जमाखोरों के घर ढूंढ लिए हैँ तुमने?
तुम्हें कुछ तमगे शम्गे चाहिए तो बोलो?
सब हो जाएगा ।
तू कब इन्सानियत की तारीफ से इतना खफा हो गया कि अचानक
“Surprise visit ” पर आ गया?
अब तो सुना है कि ‘उड़न दस्ता ‘
हो गया है!
पता ही नहीं चला कि
कब तू ने दिल से उसकी सांसे छीन ने की कवायद शरू कर दी?
हम तो अपने दिल लगी की दिल्लगी से ही परेशान थे
अब तुमने ये कैसा शिगूफा छोड दिया?
दिल कभी टूटा
तो कई बार समझाने से मान गया और भीतर ही भीतर अपना गुबार समेट लिया
तुम तो ,अमां यार,
एकदम से आए और हम पर
दुर्वासा से भड़क उठे ।
पहले कभी अपना थोड़ा गुस्सा दिखा देते
तुम पर भी कुछ बढ़िया सी कविता
लिख/ लिखा लेते
अरे ,
पैसे / वैसे देकर ही तुम्हारी वाहवाही करवा देते
पैसों से तो इमान धर्म सब खरीदा जाता आया है
अमां ! बोलो
कितने में मानोगे?
कुछ ले देकर रफा-दफा
हो यार।
पढ़ते सुनते आए थे कयामत और प्रलय के बारे में
समझ गए हम सब कुछ
रिश्तों की खूबसूरती
कुदरत की कदर
अब हाथ जुड़वा लो
पैर पड़वा लो
जाओ ,अब
जिन्दा रहने दो ।
वायदा रहा
आने वाली सात पुश्तों तक
ये सबक याद रहेगा
मत कर तू अभिमान रे बन्दे
झूठी तेरी शान ।
झूठी तेरी शान I
©सुदेश वत्स, बैंगलोर