लेखक की कलम से

पीहर …

 

सखी अब मुश्किल है

पीहर जाना।

जब से माई का निधन हुआ है,

पीहर जाने का लालच कम हुआ है।

भाई भाभी अच्छे हैं।

प्यार करते हैं।

मान भी  रखते हैं।

उनका घर मेरा भी घर है।

बार बार ऐसा कहते हैं।

मगर करूँ क्या इस दिल हरजाई का

माँ तुल्य स्नेह होगा क्या भौजाई का।

कोई कितना भी प्यार जता ले।

हजारों हज़ार जुगत लगा ले।

कठिन है माँ की बराबरी पर आना।

सखी, मुश्किल है अब पीहर जाना।

 

देख पाऊंगी कैसे

बापू का उदास चेहरा।

खामोशी का जहाँ पर

लगा है हर दम पहरा।

हर आहट पर नजरें उठती हैं,

उनकी पत्नी आई होगी

ऐसी आशा जगती है।

क़दम क़दम पर

हर वस्तु पर यादों की छाप पड़ी है।

सोच सोच कर,

देख देख कर,

आंखों से सावन भादों की

लगी झड़ी है।

कैसे देख पाऊंगी रौबीले बापू की

खुशियों का यूं लुट जाना।

मुश्किल है सखी अब पीहर जाना।

 

दौड़ कर दरवाजे पर मां आती थी।

आंखों में खुशी के भर कर ऑंसू

बार बार गले से लग जाती थी।

प्यार से निहार शिकायत करती थी

कितनी दुबली हो गई हो

ठीक से खाती पीती नहीं हो

हर बार ये कहा करती थी।

पसन्द मेरी का बना कर खाना

पास बिठा कर खिलाया करती थी।

लौट कर बचपन में अपने

में इतराया करती थी।

बड़ी हो गई हूं मैं

माँ की गोद में सिर रख

अक्सर भूल जाया करती थी।

आसां नहीं है उन दिनों को भूल जाना।

सखी मुश्किल है अब पीहर जाना।

 

 

©ओम सुयन, अहमदाबाद, गुजरात          

Back to top button