लेखक की कलम से
अनकही बातेँ…
काव्या !
तुम्हारा हर लफ्ज़ बेशकीमती
जियों माला में पिरोया मोती
हर बार निकाल संदूक ची से
भरपूर निहारती सांसों में समेटती _
क्यों प्रिया तुम इससे हो बेखबर
विदाई लेते समय किए तुमने कई वायदे
आज खड़ी उन वायदों के ढेर पर
तुमको पुकार रही
सुलग रही भीतर 2
उफन रही नदी सी _
नदी नाले पहाड़ पेड़ पौधे
सभी हैं मेरे साथ !
© मीरा हिंगोरानी, नई दिल्ली