लेखक की कलम से

मैं मजदूर …

 

मैं श्रमिक हूं।

हाँ मैं श्रमिक हूं। ।

 

इन बाजुओं से अथक परिश्रम करता हूं।

दुनिया के कोने – कोने तक मारे- मारे फिरता हूं।

मैं ही सबका ठिकाना बनाता हूं।

पर मेरा कोई ठिकाना नहीं, क्योंकि मैं श्रमिक हूं।

 

अपने श्रम के एक-एक बूंद से धरती को सींचता हूं।

पर्वतों के बीच मैं ही लकीर खींचता हूं।

पर मेरे ही रास्ते बाधाओं से भरा पड़ा है,

क्योंकि मैं श्रमिक हूं।

 

रवि का तेज, बरखा की बिजली और शीत की मार सहता हूं।

मेरी कोई अवकाश नहीं, हर पल चुस्त रहता हूं।

कष्टों के सागर से श्रम की मोती चुरा, कर्म को मीत बनाता हूं।

क्योंकि मैं श्रमिक हूं।

हां मैं श्रमिक हूं।

©श्रीमती रानी साहू, मड़ई (खम्हारिया)

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