लेखक की कलम से

रेडियो के लिये ज्योति बसु स्वतंत्रता सेनानी हैं ….

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पूर्वी बंगाल में जमींदार कुटुंब में जन्मे, ज्योति बसु कानून पढ़ने लंदन गये थे। वहां आईसीएस  (गुलाम भारत की ब्रिटिश सरकारी सेवा) परीक्षा में फेल हो गये थे। मगर बैरिस्टर बन गये तो कोलकाता हाईकोर्ट में गोरे न्यायाधीशों के समक्ष पैरवी करते रहते थे। तभी बापू ने ब्रिटिश अदालत और शिक्षा केन्द्रों के बहिष्कार की अपील की थी। राजेन्द्र प्रसाद,सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, जवाहरलाल नेहरु, सरदार पटेल आदि ने अंग्रेजी अदालतों को छोड़े दिया था। नेताजी सुभाष बोस ने तो करिश्मा कर दिया था। आईसीएस  परीक्षा में अपने पिता के आग्रह पर बैठे, उत्तीर्ण भी हुए पर भर्ती होने से मना कर दिया। जंगे आजादी में शामिल हो गये। मगर माकपा सुभाष बोस को स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती रही।

भ्रष्टाचार इतना बढ़ा कि आम पार्टी कार्यकर्ता ने सीपीएम को कंट्रेक्टर्स (ठेकेदारों) की पार्टी आफ इंडिया का नाम दिया। पश्चिम बंगाल की सरकार के ही मंत्री विजयकृष्ण चौधरी ने (19 सितम्बर 1995) कहा कि पूरी वाममोर्चा सरकार ही ठेकेदारों की हो गयी है। लेकिन त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री अस्सी वर्षीय नृपेन चक्रवर्ती ने जब अपने साथ ज्योति बसु पर भ्रष्ट होने और अकूत धनराशि अर्जित करने का आरोप लगाया तो बवाल तेज हो गया। उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। ज्योति बसु ने इन आरोपों को निराधार, महज लांछन बताया, मगर इस तथ्य को स्वीकारा कि पूरे देश में माकपा इकाइयों को फण्ड वे ही उपलब्ध कराते हैं। इसी कारण से उनकी इतनी धाक है कि कोई माकपा नेता उनका विरोध नहीं करता और अगर कहीं कोई कर भी दे तो उसके राजनीतिक जीवन की इतिश्री हो जाती है। पश्चिम बंगाल के प्रथम गैरकांग्रेसी मोर्चा के मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी को पदत्याग बस इसीलिये करना पड़ा था क्योंकि उन्होंने मालदा जिले के गजोल थाने के दरोगा का तबादला निरस्त कर दिया था। वह आदेश उपमुख्यमंत्री एवं गृहमंत्री ज्योति बसु (1969) ने दिया था। अपने ही गृहमंत्री के खिलाफ मुख्यमंत्री को कलकत्ता के कर्जन पार्क में (1 दिसम्बर 1969) अनशन पर बैठना पड़ा था। मई दिवस (1976) पर विश्वविद्यालय के सभागार में ज्योति बसु ने कहा ”इमर्जेंसी के कारण शहीद मीनार के मैदान के बजाय यह श्रमिक पर्व इस हाल में मना रहे हैं, क्योंकि पुलिस ने अनुमति नहीं दी है।” उस सभागार में एक युवा श्रोता उठा। बोला-‘क्या समाजवादी क्रांति को लाने के लिये हमें लालबजार थाने के दरोगा की आज्ञा लेनी पडे़गी ?’ ज्योति बसु नाराज हो गये। उस युवक को पार्टी से निकाल दिया गया।

तुलना हेतु दो माकपा  मुख्यमंत्रियों को जीवन शैली पर नजर डालें। केरल के मुख्यमंत्री ई.के. नयनार से उनका बेटा एक बार जेबखर्च मांगने आया। उसे पहली तारीख को रूपये देने का वायदा उन्होंने किया, क्योंकि अन्य सरकारी कर्मचारियों की भांति मुख्यमंत्री को भी महीने की पहली तारीख को ही वेतन मिलता हैं। ज्योति बसु के एकमात्र पुत्र चन्दन को ऐसी प्रतीक्षा कभी नहीं करनी पड़ी। भले ही वह उच्च शिक्षा न प्राप्त कर पाया हो, चन्दन बसु आज बंगाल के अग्रणी उद्योगपतियों में गिना जाता है। बारहवीं कक्षा के बाद जब किसी भी शिक्षा संस्थान की प्रवेश परीक्षा में वह उत्तीर्ण न हो पाया, तो बैरिस्टर पिता ने चन्दन को डाक्टर बनाने की हसरत से कश्मीर मेडिकल कालेज (श्रीनगर) की आरक्षित सीटों के कोटे में प्राध्यापक डाक्टर फारूख अब्दुल्ला की मदद से भर्ती कराया। पर चन्दन का मन कहां रम पाता? वह आधे में छोड़कर कोलकाता के फर्म बंगाल लैम्प कम्पनी में उच्च अधिकारी बन गया। दैनिक अमृत बाजार पत्रिका ने खबर छापी (18 सितम्बर 1988) कि पश्चिम बंगाल के लोक निर्माण विभाग ने सारे बल्ब ऊँचे दामों पर बेंगाल लैम्प कम्पनी से ही खरीदें। क्रांतिकारी सोशलिस्ट पार्टी घटक के जतीन चक्रवर्ती जो राज्य विभागीय मंत्री थे, ने अपनी सफाई में कहा कि मुख्यमंत्री के पुत्र को बल्ब सप्लाई करने का ठेका दिया गया था। बात बढ़ी तो जतीन चक्रवर्ती को मंत्रिमंडल से हटना पड़ा।

आकाशवाणी के इस नूतन सेनानी ज्योति बसु का माकपा के विकास में इतना योगदान रहा कि आज 294 सदन में माकपा का एक भी विधायक नहीं जीत सका। जबकि तीन दशकों तब माकपा का अपार बहुमत रहा। ममता बनर्जी की श्लाधा करनी पड़ेगी कि जो काम सिद्धार्थ शंकर राय और अन्य कांग्रेसी भी नहीं कर पाये, कालीघाट (कोलकाता) की शेरनी ने कर दिखाया। बंगाल टाइग्रेस है।

 

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली                                           

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