लेखक की कलम से

प्रयागराज के भारती भवन का क्रंदन सुनो !

प्रयागराज मनीषियों का मरकज है। कभी उसका बीजमंत्र होता था:- ‘‘पढ़े और पढ़ायें, सुने और सुनाये।‘‘ शायद अब नहीं। वह अक्षहीन हो गया है, बधिर भी। यहीं सवा सदी से ज्ञान का पर्याय रहे ‘‘ भारती भवन‘‘ लाइब्रेरी का अवसान आसन्न है। मगर सत्तानशीनों को न तो फिक्र है। बुद्धिकर्मियों को न तो व्याकुलता। इसीलिये टिकटिकी लगी है कुशल महापौर अभिलाषा गुप्ता की ओर, शायद वे इस धरोहर को बचा लें। वे सबला हैं, मंत्रीपत्नी हैं। पति नंदी योगी काबीना में रसूखदार हैं। यहां की सांसद रीता बहुगुणा तो इतिहासवेत्ता हैं। अगली पीढ़ी, नयी नस्ल अपनी थाती को ध्वस्त होते कभी गवारा नहीं करेगी। माफ तो कदापि नहीं।

आज (12 अगस्त 2022) राष्ट्रीय पुस्तकालय दिवस है। अतः ‘‘भारती भवन‘‘ के प्रति टीस उठना लाजिमी है। अपरिहार्य है।  खासकर आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष के परिवेश में। संगम नगरी में जंगे-आजादी की यह गौरवशाली पहचान है। महामना (मदन मोहन) मालवीय और राजर्षि पुरूषोत्तमदास टंडन इससे भावनात्मक तौर पर संबद्ध रहे। नेहरू बाप-बेटे (जवाहरलाल-मोतीलाल) के साथ। महादेवी वर्मा और उनके राखी भाई निराला भी। ब्रिटिश साम्राज्य से सम्मानित सर संुदर लाल भी जुडे़ थे, तो जेल में कैद बागी सत्याग्रही भी। उन्हें किताबें कारागार में भेजी जाती थीं। तब विद्यादान धर्म था, साधना भी। बड़ी सटीक व्याख्या की अर्जन्टाइन स्पेनिश कवि जार्ज लुई बोर्जेस ने: ‘‘स्वर्ग एक, लाइब्रेरी जैसा ही होगा।‘‘ रोमन चिंतक मार्कस सिसरो ने तो निर्धारित कर दिया था कि  ‘‘बगीचा और पुस्तकालय ही सब कुछ है।‘‘ विचारों की क्रांति की वह कोख होती है। ‘‘लाइब्रेरी का सही-सही पता प्रत्येक को जरूर जानना चािहये‘‘, राय थी एलबर्ट आइंस्टीन की।

तो क्या पता रहा इस भारती भवन का ? प्रयागराज की पूर्वी दिशा में लोकनाथ मोहल्ला है। सौ साल पहले शहर के किनारे था। अब बाजार की भीड़ में फंसा है। आबादी घनी हो गयी। वह घिर गया। साहित्यप्रेमी का जमावाड़ा होता था। स्वाधीनता सेनानियों का भी। कचौड़ी, जलेबी, लस्सी मशहूर थी। इस इलाकें तीन बाशिन्दों को शीर्षतम राष्ट्रीय पारितोष (भारत रत्न) से नवाजा जा चुका है: जवाहरलाल नेहरू, पुरूषोेत्तमदास टंडन और महामना मालवीय। इलाके का नाम पड़ा पड़ोसी दो सदियों पुराने शिवालय बाबा लोकनाथ के नाम पर। यहीं के सांसद रहे लाल बहादुर शास्त्री।

भारती भवन से गहरा लगाव रखने वाले श्री अनुपम परिहार, मनु मालवीय, डा. मुक्ति व्यास, आदि की तीव्र आशंका का एहसास होता है कि प्रदेश के सांस्कृतिक इतिहास का यह यादगार स्तंभ वक्त के थपेड़ों तथा जनोपेक्षाओं के परिणाम में विलुप्त न हो जाये। सिर्फ एक उजड़ा दयार न हो जाये। ताकतवर साम्राज्यवादी बर्तानिया सत्ता से मुकाबला कर चुका यह शिक्षा केन्द्र अपने लोगों के हाथ ही न गिर जाये। विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष रहे डा. हेरंब चतुर्वेदी की पीड़ा मर्म को छू जाती है। वे अध्ययन हेतु यहां अक्सर जाते थे। उन्होंने  बताया की प्रबंधन की मुफलिसी की यह दशा है कि एक इनवर्टर तक नहीं लग पाया। जब बिजली गुल हो जाती थी तो खिड़की खोलकर वे पढ़ते थे। मेधा को रौशन करने वाला संस्थान खुद प्रकाश से वंचित रहता था। प्रो. चतुर्वेदी को यही आशा है कि शासन जागेगा। हेरंबजी ने बताया कि भारती भवन में ‘‘टाइम्स आफ इंडिया‘‘, दि स्टेट्समैन, पयोनियर आदि कीे महत्वपूर्ण प्रतियां रखी हैं।

बुद्धिकेन्द्रो पर गृहकर नहीं लगता है। अंग्रेज भी नहीं लगाते थे। फिर राष्ट्रवादी संस्थान पर देशी शासन क्यों थोपें ?  इस संदर्भ में इलाहाबाद के मुख्य कर निर्धारण अधिकारी श्री प्रमोद कुमार द्विवेदी ने बताया कि इस गृहकर से भारती भवन को मुक्त किया जा सकता है। इस आग्रह का पत्र उन्हें मिले तो वे अवश्य संवेदनापूर्वक विचार करेंगे। इस अधिकारी (प्रमोदी कुमार) का इस भवन के लिये स्नेह का कारण है कि वे स्वयं काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के छात्र रहे, जिसके स्थापक मदन मोहन मालवीय का जन्म स्थल केवल पचार मीटर दूर, भारती भवन के लोकनाथ मोहल्ले में ही है। प्रमोद द्विवेदी जी ने भावनात्मक सरोकार व्यक्त किया।

वजूद की लड़ाई लड़ रहे भारती भवन को हाल ही में नगर निगम ने 2.87 लाख रूपये का गृहकर नोटिस भेजा है,  जिसमें 2018 से लगाया गया ब्याज भी शामिल है। भारती भवन पुस्तकालय के लाइब्रेरियन स्वतंत्र पाण्डेय ने बताया कि कभी खुद आर्थिक सहायता देने वाले नगर निगम ने अब पुस्तकालय से 2.84 लाख रूपये गृहकर मांगा। उसके पहले कभी भी इस पुस्तकालय से गृहकर नहीं लिया गया था। पाण्डेय के मुताबिक, इस पुस्तकालय की आय का कोई स्रोत नहीं हैं, क्योंकि यहां पाठकों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता। राज्य सरकार से प्रति वर्ष दो लाख रूपये का अनुदान मिलता है, जिससे बिजली का बिल भरा जाता है, जो कि सालाना 35 से 40 हजार रूपये के बीच आता है। उन्होंने बताया कि इसके अलावा पुस्तकालय के पांच कर्मचारियों के वेतन के मद में सालाना 2.75 लाख रूपये खर्च होते है, जिसका भुगतान सावधि जमा ( फिक्स्ड डिपॉजिट) से मिलने वाले ब्याज से किया जाता है।

श्री स्वतंत्र पाण्डेय ने चिंता व्यक्त की कि रखरखाव, पांच कर्मियों के वेतन आदि हेतु कोई भी वित्तीय मदद न मिलने के कारण भवन की स्थिति शोचनीय हो गयी है। उन्होंने बताया कि तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने एकदा दस लाख रूपये का अनुदान दिया था। अब लखनऊ के राज भवन छोड़े बोरा जी  को 26 वर्ष हो गये। इसी प्रकार केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी ने भी दस लाख की बैंक एफडी करायी थी। उसे भी दस वर्ष बीत गये। मुलायम सिंह यादव के शासन काल में इलाहाबाद के सांसद जनेश्वर मिश्र ने एक लाख रूपये के अनुदान को दो लाख का करा दिया था, उसे भी दशक हो रहा है। अचरज होता है कि इतने महत्वपूर्ण संग्राहलय पर बौद्धिक जमात का तनिक भी ध्यान क्यों नहीं गया ?

जबकि हजारों स्वयंसेवी संस्था (एनजीओ) देश-विदेश से अरबों रूपये का ग्रांट पाते हैं। पत्रकार तीस्ता सीतलवाड का ताजा उदाहरण है जिसने मनमोहन सिंह सरकार और विदेशों से अकूत वजीफा पाया। उसे मद्यपान, विदेश यात्रा तथा सैरसपाटे पर खर्च कर डाला। इसीलिये दिल दुखी हो जाता है, ऐसे मंजर से।  भारती भवन की आवाज ‘‘त्राहि माम‘‘ सुनना चाहिये।

 

 

 

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली                                           

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