लेखक की कलम से

सिर्फ अधिकार की बात क्यों ?

हम सभी आज स्वतंत्र भारत में संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उपयोग करते हुए, अपने देश में आराम से रह रहे हैं, इसका श्रेय उन लाखों ज्ञात-अज्ञात शहीदों को है जिन्होंने आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। आज मैं आप सब से यह पूछना चाहती हूँ, क्या यह वही स्वतंत्रता है जिसका अमर बलिदानियों ने स्वप्न देखा था ? हम भौतिक विकास की बात छोड़ दें, और संविधान की मूल भावना की बात करें, तो यह पाएंगे कि इस देश का संविधान इस देश के लोगों ने स्वयं को आत्म अर्पित किया है।

हम संविधान में प्रदत्त मूलाधिकारों जिनका संरक्षक सर्वोच्च न्यायलय है, उनका उचित उपयोग कर रहे हैं? क्या संविधान द्वारा आरोपित कर्तव्यों की पूर्ति कर रहे हैं? तो शायद जवाब होगा नहीं। अगर इस देश के सभी नागरिक अपने स्वतंत्रता का सही उपयोग कर रहे होते, तो देश में अपराध का ग्राफ इतनी तेजी से नहीं बढ़ता, विशेषकर महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले अपराध। बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था CRY की ताजा रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों में 500 प्रतिशत का इजाफा हुआ है।जिसमें किडनैपिंग और POCSO अधिनयम के तहत विभिन्न मुकदमें हैं।

क्या सिर्फ कानून बनाने से अपराध रुक जाएगे ?

क्या सिर्फ कानून बनाने से अपराध रुक जाएगे ? अगर हां तो फिर कानून तो बहुत हैं हमारे यहाँ, फिर अपराधों में निरन्तर बढ़ोतरी क्यों ? जहाँ तक मुझे लगता है इसके बहुत से कारण हैं, जैसे नैतिक और चारित्रिक मूल्यों का ह्रास मुख्य कारण है। बच्चे आसान शिकार होते हैं कुत्सित मानसिकता के अपराधियों के लिए। जिन्हें अपराधी आसानी से शिकार बना लेते हैं, और उन्हें इस कदर डरा देते हैं कि वे किसी को बता भी नहीं पाते। संवाद की कमी बच्चों औऱ माता-पिता के बीच जिससे कई बार बच्चे अपने माता-पिता को अपराध की जानकारी नहीं देते, या परिवार से पीड़ित या परेशान बच्चे बाहर किसी अपने की तलाश में अपराधियों के चंगुल में फंस जाते हैं।

सज़ा का डर नहीं है अपराधियों को

सज़ा का डर नहीं है अपराधियों को, क्योंकि हमारे यहाँ कानूनी प्रक्रिया लंबी और पेचीदा है, जिसके कारण अपराधी या तो बच निकलते हैं या मौत की सज़ा पाने वाला अपराधी आधी जिंदगी जेल में बिता लेता है तब कहीं  बुढ़ापे में सज़ा होती है। पुलिस का पीड़ितों के प्रति संवेदनहीन रवैय्या और लचर जांच प्रक्रिया। नमूने लेने और उन्हें संरक्षित करके सही रूप में जांच के लिए भेजने में पुलिस की भूमिका संदेहास्पद है, इसीलिए आधे से ज्यादा नमूने नष्ट हो जाते हैं या कोई सटीक रिपोर्ट नहीं मिल पाती, जिससे मुलजिम बच निकलते हैं।

वो डॉ. भी दोषी हैं जो रेप पीड़िता के परिवार को सहयोग करने के बजाए अंदरूनी जांच करने से डराते हैं, या उपेक्षित तरीके से रिपोर्ट लिख देते हैं। वे लोग जिन्होंने अपराध होते देखकर भी कोई उचित कदम नहीं उठाया रोकने के लिए, या जब बयान देने की बारी आती है तो पलट जाते हैं। वे माँ-बाप जो सिर्फ बदनामी के डर से रिपोर्ट दर्ज नहीं कराते, और समाज के वे लोग जो पीड़ित को हेय दृष्टि से देखते हैं, उनके चरित्र पर उंगली उठाते हैं, या शायद वे लोग भी दोषी हैं जो कानून का फायदा उठाकर झूठे मुकदमें दर्ज कराते हैं।

हाल ही में बिहार का केस जिसमें शेल्टर होम की भयानक सच्चाई हमारे सामने आई है। जिसके बाद हमें गम्भीर और गहन चिंतन करने की आवश्यकता है, हम अपनी नई पीढ़ी को कैसा परिवेश दे रहे हैं? समस्याएँ अनगिनत हैं लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में हम सभी कहीं न कहीं अपने सामाजिक, नैतिक और विधिक कर्तव्यों का निर्वाह सही तरीके से नहीं कर पा रहे हैं। जिसके कारण ये समस्या विकराल रूप ले रही है।

किसी भी देश का भविष्य उसके युवा होते हैं। जिस देश में बच्चों के प्रति इतने अपराध होंगे क्या वे बच्चे युवा होकर समाज को वही नहीं लौटायेंगे जो समाज उन्हें दे रहा है। हमें एक स्वास्थ्य और जागरूक समाज आज की आवश्यकता है, समाज हमसे है, हम भी समाज का हिस्सा हैं, जब तक हम नहीं बदलेंगे समाज कैसे बदलेगा ? अपनी स्वतंत्रता का सही उपयोग कर महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों को रोककर हम देश सेवा में योगदान दें। एक अपराध मुक्त समाज की दिशा में प्रयास करें, जब इस देश में महिलाएं और बच्चे सुरक्षित होंगे तभी हम पूर्ण रूप से स्वतंत्रता होंगे।

©शीतल रघुवंशी, अधिवक्ता, दिल्ली उच्च न्यायालय

डिस्क्लेमर: इस पोस्ट में व्यक्त की गई राय लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

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