लेखक की कलम से
ज़िन्दगी…
बुनती गई रात दिन
क्षितिज,पाने के लिए
थके हुए पांव भी
फिर भी, चलतें ही गयें
क्षिति पर क्षितिज था
कि ये कोई भूल थी
आसमां निहार कर
तलाशती चली गई
सोचा लौट जाऊँ तो
देखा,उम्र गुजर गई
फ़लक से, उसने देखा तो
वो ज़ोर- ज़ोर से हंस पड़ी
कहाँ होश था उसे
जो उम्र भर देखती
ज़िन्दगी गिरफ्त में
ना हो सकी, किसी की भी
वफ़ा ना उसमें,थी कभी
वक़्त के साथ ,ढ़लती रही
उसके चेहरे पर अब
मलाल सा आ गया
ग़रूर था उसे बहुत,
अब उम्र से दूर थी
वो वक़्त के साथ चली गई||
©इली मिश्रा, नई दिल्ली