लेखक की कलम से

जीने का अधिकार …

बस भी करो अब,

कितनी बार मारोगे उसे

जिसे नोंच खाया दरिंदों ने,

नाम कोई भी हो

जाति-धर्म कोई भी हो,

अस्मत अगर किसी की लुटती है,

मरती सिर्फ वो बेचारी नहीं,

मरता उसका वजूद है

और ढहती भरोसे की कितनी दीवारें हैं;

हाँ, माना कि खून खौल उठा है सबका,

ऐसी दरिंदगी ने झकझोर दिया है सबको,

पर उन चंद खूनी हैवानों के कृत से

हर रोज दिल जलाना सही है क्या?

किसी दैत्य के कुकृत्य से पूरे समाज में

कालिख पोतना सही है क्या?

ठीक है कि यहाँ आज कोई राम नहीं,

पर लक्ष्मण सरिखे कितने ही हैं यहाँ,

जो एक चीख पर जान तक कर दे कुरबान।

खौफ खाकर ही चला करते हैं हम,

रात को जब भी निकला करते हैं हम,

कुछ काली नज़रों से भी गुजरना हुआ है

पर हर बार कफन बाँधे ही रखा है,

न जाने कब अपने भी कोई टूकड़े कर डाले,

क्या पता किस मोड़ पर मौत नाचती मिले,

इस डर को कितने ही लक्ष्मणों ने तोड़ा है,

बिन हाथ दिये साथ कभी न राह में छोड़ा है,

पाक नज़रों से, नारी होने का गुमान भी करवाया है।

किसी बस के दैत्यों ने यदि कोई कुकर्म किया

तो सारे बसवालों पर कीचर उड़ाना सही है क्या?

किसी राक्षसी प्रवृति वाले वहशी दरिंदे की खातिर

सारे पुरूषों पर उँगली उठाना सही है क्या?

जिन बेटियों को भेड़ियों ने हवश में निगल लिया

उनके दर्द को हर रोज जगाना सही है क्या?

जो देना हो उन बेटियों को सही इंसाफ

तो सब होकर एकजुट करो सारे कचरे को साफ,

चुन चुनकर दरिंदों को बताओ उसकी असली औकात।

छोड़ो अब मोम या शब्दों का प्रतिकार,

नारी को नहीं चाहिये कोई विशेष कार्यभार,

उसे चाहिये तो बस बेखौफ जीने का अधिकार,

बेखौफ यदि वो ले अपनी रातों को गुजार,

समझ लेना हो गया समाज का अपने सुधार।

©अनुपम मिश्र, न्यू मुंबई

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