अर्थतंत्र की मजबूती के लिए प्रत्यक्ष कर संहिता
ऐतिहासिक कालक्रम में जब से अर्थव्यवस्था ने आकार लेना आरंभ किया है तभी से कर-व्यवस्था एक महत्वपूर्ण विषय रहा है। आरंभिक दौर से लंबे समय तक इसका आधार ‘कृषि’ रहा, परंतु औद्योगिक क्रांति के पश्चात धीरे-धीरे कृषि का योगदान सिमटता चला गया और उसकी क्षतिपूर्ति ‘विनिर्माण’ और ‘सेवा’ क्षेत्र ने की। आज के दौर में ये दोनों ही कारक विश्व की तमाम अर्थव्यवस्थाओं के निर्धारक तत्व बने हुए हैं और भारत भी इससे अछूता नहीं है।
प्रत्येक शासनकाल में कर व्यवस्था को लेकर मूल चिंता यही रही कि आखिर इसका स्वरूप क्या हो, दर का निर्धारण कैसे हो, कितनी दर रखी जाए और फिर वसूली का तरीका सख्त हो या नरम आदि ? इन तमाम सवालों के जवाब खोजना आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि इनकी उत्पत्ति के दौर में था। इन्हीं सवालों का जवाब देते हुए आचार्य चाणक्य ने अपने ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में कहा कि ‘कर की दर तार्किक व वसूली का तरीका सहज होना चाहिए। तभी करदाता प्रसन्नता पूर्वक कर चुकाएंगे, अधिकाधिक आय अर्जन को आतुर होंगे, सरकार के कर राजस्व में वृद्धि होगी और अर्थव्यवस्था समृद्ध होती चली जाएगी।’ अतः कौटिल्य का यह सुझाव आज भी प्रासंगिक है और भारतीय कर व्यवस्था में सुधार की गुंजाइश महसूस की जा रही है।
ग़ौरतलब है कि वर्ष 2017 में जीएसटी के रूप में अप्रत्यक्ष कर सुधार की ओर कदम बढ़ाया गया, मगर अभी तक अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो सके हैं। फिर भी अब प्रत्यक्ष कर में सुधार का वक्त आ चुका है। इस हेतु ‘प्रत्यक्ष कर संहिता’ (डीटीसी) के निर्माण की बात लंबे समय से चल रही है, पर अभी तक इसे मूर्त रूप प्रदान नहीं किया जा सका है। इस हेतु अरविंद मोदी के अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था, फिर इनका कार्यकाल पूरा होने पर कमान अखिलेश रंजन को सौंपी गई और इस समिति ने नवंबर 2019 में ‘ड्राफ्ट-डीटीसी’ केंद्र सरकार को सुपुर्द कर दिया है। उम्मीद है कि पेश किए जाने वाले बजट में इस समिति की सिफारिशों के आलोक में डीटीसी लागू कर दी जाए।
‘प्रत्यक्ष कर संहिता’ वास्तव में प्रत्यक्ष कर-व्यवस्था को विनियमित करने हेतु मौजूदा कानूनों का सरलीकृत रूप होगा। यदि प्रत्यक्ष कर संहिता आकार लेती है तो यह ‘आयकर अधिनियम 1961’ व ‘संपत्ति अधिनियम 1957’ को विस्थापित कर देगी। मगर प्रश्न उठता है कि डीटीसी की जरूरत क्यों पड़ी? दरअसल, वर्तमान प्रत्यक्ष कर व्यवस्था को विनियमित करने वाले आयकर अधिनियम 1961 में विभिन्न संशोधनों के जरिए अनेकों प्रावधान जोड़े-हटाए गए। नए प्रावधानों से अनेक जगह ओवरलैपिंग की समस्या पैदा हुई। इसी का लाभ उठाकर करदाता लूपहोल्स को ढूंढकर कर बचाने में सफल हो जाते हैं। इसे ‘टैक्स अवॉइडेंस’ कहा जाता है। हालांकि यह तरीका अवैध नहीं है मगर सरकार को राजस्व हानि झेलनी पड़ती है। इसके अतिरिक्त प्रावधानों की अतिव्याप्तता के कारण ही कालाधन, कर-चोरी, कर-आतंक जैसी समस्याएं भी उत्पन्न होती हैं। सबसे बढ़कर, आंकड़े गवाह हैं कि अदालत में भारत सरकार महज़ 27% कर-संबंधी केस ही जीत पाती है। ऐसे में डीटीसी इन तमाम समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकती है।
ध्यान दें कि यदि इस बजट में डीटीसी लागू की जाती है तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी का कार्य कर सकती है। सर्वप्रथम तो ‘ड्राफ्ट-डीटीसी’ में मौजूदा 4-टैक्स स्लैब को बढ़ाकर पांच किए जाने का प्रस्ताव है। परिणाम स्वरूप कर-आधार बढ़ने से राजस्व-वृद्धि होगी। इसके अतिरिक्त वर्तमान में उपस्थित ‘आयकर अधिनियम’ की धारा-87ए के अनुसार पांच लाख रुपये वार्षिक आय तक पूर्ण कर-छूट दी जाती है। डीटीसी के जरिए इस प्रावधान को तो लागू रखा ही जाएगा, साथ ही सेस व सरचार्ज की उस व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाएगा जो पचास लाख या उससे ऊपर वार्षिक आय वाले करदाताओं से वसूला जाता है। अतः करदाताओं पर कर का बोझ भी कम होगा।
डीटीसी का प्रभाव न सिर्फ व्यक्तिगत करदाताओं को लाभान्वित करेगा अपितु यह कॉरपोरेट घरानों, निवेशकों आदि पर भी सकारात्मक असर डालेगा। क्योंकि इसके जरिए ‘प्रतिभूति हस्तांतरण कर’ (एसटीटी) व ‘लाभांश वितरण कर’ (डीडीटी) की व्यवस्था में भी परिवर्तन की संभावना है। कर व्यवस्था को अधिकाधिक डिजिटल बनाया जाएगा, कर चुकाने की प्रक्रिया को ‘टैक्सपेयर-फ्रेंडली’ बनाया जाएगा। परिणाम यह होगा कि भारत में इज ऑफ डूइंग बिजनेस का वातावरण सुधरेगा, निवेश बढ़ेगा, उत्पादन बढ़ेगा, रोजगार बढ़ेंगे, कर-आधार बढ़ेगा, कर अनुपालना बढ़ेगी, करदाताओं पर कर का बोझ घटेगा, उनकी क्रयशक्ति बढ़ेगी। अतः अर्थव्यवस्था में माँग पैदा होगी और सरकार के कर राजस्व में भी वृद्धि होगी। अंततः अर्थतंत्र का पहिया तेज़ी से घूमने लगेगा।
मगर सरकार को इन तमाम लाभों के साथ-साथ उपस्थित चुनौतियों को भी समय रहते दूर कर लेना चाहिए। जीएसटी को लेकर जो तकनीकी व ढाँचागत खामियाँ रहीं, वैसी चूक इस प्रयास को लागू करते वक्त नहीं होनी चाहिए। उस दौर में अर्थव्यवस्था की संवृद्धि दर बेहतर थी। अतः जीएसटी के झटके को अर्थतंत्र किसी तरह से झेल गया। मगर अर्थव्यवस्था की वर्तमान हालत किसी प्रयोग को झेलने की स्थिति में नहीं है, बल्कि यह एक उपचार की चाह रखती है। इसीलिए तमाम संभावित चुनौतियों का निराकरण समय रहते करना जरूरी होगा।
स्पष्ट है कि ‘प्रत्यक्ष कर संहिता’ के लाभों को देखते हुए इसे लागू किए जाने का कदम जल्द ही उठाना चाहिए। पहले भी संसद की स्थाई वित्तीय समिति व अन्य औपचारिक मंच इसे लागू करने की सिफारिश कर चुके हैं। अतः डीटीसी रूपी प्रत्यक्ष कर सुधार में अधिक देरी आर्थिक दृष्टिकोण से उचित नहीं होगी। यह भी ध्यातव्य है कि भारत में व्यक्तिगत करदाता महज 4% हैं। अतः डीटीसी के जरिए इनकी संख्या में वृद्धि भी अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने में उपयोगी सिद्ध होगी।
©द्विजेन्द्र कौशिक, इंजीनियर, दिल्ली