लेखक की कलम से

एक दीया प्यार का …

(दीपावली पर्व पर)

 

 

आओ एक दिया प्यार का मिलकर जलाते हैं।

आओ इस बार दीपावली कुछ खास मनाते हैं।

 

दीये ले लो दीये, दस के बीस दीये, कहते हुए एक जानी पहचानी आवाज ने सोसाइटी में प्रवेश किया। ये मोहिनी की आवाज थी, जो पिछले कई वर्षों से हर दीपावली दीपक बेचने आती रही है। कहने को तो कुम्हारिन है, लेकिन रूप, रंग, लाव्णय ऐसा जैसे साक्षात लक्ष्मी ही मोहिनी के रूप में आती हो।

 

 

 

एक हाथ से अपनी छोटी बच्ची का हाथ पकड़े वह अंदर सोसाइटी में आती है, और बच्ची को बिस्किट का पैकेट पकड़ाकर, चबूतरे पर बिठाकर चुप रहने का इशारा करके दीपक सम्हालने लगती है।

 

 

 

छोटी सी बच्ची भी मां का इशारा आंखों ही आंखों में समझ जाती है और चुप से अपने बिस्किट में मन लगा लेती है। कुछ अच्छे खास पैसे वाले लोग आते हैं, जो दीपावली के नाम पर हजारों रुपया झल्लर में लाइटों में पटाखों में खर्च कर देते हैं, पर उससे दीपक का मोलभाव करने लगते हैं।

 

 

 

तभी सामने से सुमन आंटी आती हैं और मोहिनी से कहती हैं कम से कम अपने साथ इस  छोटी सी बच्ची को तो इस तरह मत घुमा मोहिनी। क्या करें मैम साहब बच्ची है इसीलिए तो अकेला नहीं छोड़ सकती मां के साथ ही महफूज है

 

 

 

मेम साहब कहने को तो हम लक्ष्मी है घर की, लेकिन जब तक यह लक्ष्मी भी घर-घर ना घूमे तो अपने बच्चों की दीपावली भी नहीं मना सकती…

 

 

 

सुमन आंटी सभी सोसाइटी के लोगों को समझाती है सही मायने दीपावली दूसरों को खुशीयां देने का त्यौहार है। हम सभी समर्थ लोगों को गरीबों की मदद करनी चाहिए।

 

 

तब जाकर दीपावली का पर्व सार्थक होगा…

 

 

 

©ऋतु गुप्ता, खुर्जा, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश

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