लेखक की कलम से

किसान के समांतर दुनिया…

“महज़ गांवों के परिवेश में रहना और गांव की संस्कृति को जीना” , दो अलग-अलग बातें हैं
जैसे,
दूर मेढ़ पर खड़े होकर मेहनतकश किसान पर कविता लिखना और खेतों में उतरकर मेहनत करना

दो अलग-अलग बातें हैं, “किसान बन कर जीना और किसानों का नेता होकर जीना”,
जैसे,
कचोटते भूख के साथ फावड़ा चलाना और आकण्ठ उदरपूर्ति के बाद काफिले के बीच से निकलकर किसानों के बीच जाकर संवेदनाएं व्यक्त करना

“महज़ सर्वहारा के उत्थान की विचारधारा को लेकर जीना और सर्वहारा का हक़ मार कर जीना”, दो अलग-अलग बातें हैं
जैसे,
चुनावी घोषणापत्र में “रोटी” का सब्जबाग दिखाना और चुनाव बाद निज हित में राजनीतिक रोटियां सेंकना

कोई भी हो सम्राट इतिहास का
बागडोर किसी के भी हाथों में हो वर्तमान का ,
अपने युग के किसानों की अनिवार्यता को वो अस्वीकार नहीं कर सकता
अपने युग के किसानों से वो बड़ा नहीं हो सकता ,
किसान कवि नहीं है
किसान राजनेता नहीं है
लेकिन किसान वो शब्द-शिल्पी है , जिसके बोये शब्दों से लोगों का पेट भरता है

“किसान होना और किसान के समांतर कुछ भी होना “,
दो अलग-अलग बातें हैं ।

©रमन सिंह ‘अंशुमाली, नई दिल्ली

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