लेखक की कलम से
किसान दुर्दशा…..
“सूखी मिट्टी,
बंजर खेती,
होंठ हमारे सूखे हैं,
पानी को तरसे,
न मेघा बरसे,
नयन हमारे रोते हैं,
तपती धूपें,
जलती धरती,
इरादे हमारे ऊँचे हैं,
जब भी मौसम दस्तक देता,
सपने हम अपने बोतें हैं,
न दिन जाने,
न रात पहचाने,
किसान हमारे ऐसे होते हैं..
उपजेगा एक भविष्य हमारा,
बस यही कल्पना कर लेतें हैं,
सींचे हैं,
यूँ खींचे है,
ये लहू हमारे पीते है,
फिर भी एक एक दाने में,
हम ज़ीते है हम मरते हैं,
इन्ही सभी कारणों से हम,
अपने सपने बौने कर लेते है,
न दिन जाने,
न रात पहचाने,
किसान हमारे ऐसे होते हैं…..”
©इंजी. गौरव शुक्ला , इलाहाबाद, यूपी