ऋचा ….
(लघुकथा)
इतना गौर से क्या देख रही हो? यही कि कल तक तुम कितने अजनबी थे मेरे लिए और आज मैं तुम्हारे… बिना कुछ सोचने में भी समर्थ नही।
जो तुम कहते हो वही करती हूं। जैसे चलाते हो… चलती हूं। एक बात कहूं ,जब शादी करके मैं यहां आई उस दिन ही मैंने तुम्हारी हर चीज को, हर रिश्ते को अपना लिया था। कुछ आदत मुझे भी पसंद नहीं है तुम्हारी मैं नहीं कह पाई।
जैसे आपने हमेशा मेरे पापा को तेरे पापा, मेरे भाई को तेरा भाई, तेरी बहन व अन्य सभी रिश्तेदारों को हमेशा मेरे ही रिश्तेदार कहा है। और मुझसे हमेशा ये ही अपेक्षा की है कि मैं इसे अपना घर समझूं आप सभी की सेवा करूं अभी तो एक साल भी नहीं हुआ हमे मैं से हम हुए और तुमने मुझे मेरे-तुम्हारे में उलझा कर रख दिया।
अगर मै इस अन्जान घर, परिस्थितियों को तुम्हारे प्रेम के बल पर अपना सकती हूं तो तुम तुम्हारे परिवार ने क्यों नहीं अपनाया मुझे… मेरे अपनों को जिन्होंने मुझे पाल-पोस कर इतना बड़ा किया है। उनके सम्मान करने की बात तो मैं आपसे कह सकती हूं ना?????
मुझे मालूम है। कल हमारी बिटिया भी किसी से यही अपेक्षा रखने वाली है।
ऋचा बहुत सुंदर तरीके से तुमने अपनी बात मेरे सामने रखी…!
मैं भी कितना ना समझ हूं।
जो लड़की अपना सब कुछ छोड़कर मुझे मेरे परिवार सहित सहर्ष स्वीकार कर हमेशा होठों पर मुस्कान सजाए सभी की पसंद, नापसंद का ध्यान रखती है। सभी का स्वागत करती है।
उसी के परिवार को मैं… इग्नोर करता रहा माफ करना… ऋचा मैंने अन्जाने में ही सही… तुम्हारा दिल दु:खाया आइंदा तुम्हें शिकायत का मौका नहीं दूंगा…!
©सुधा भारद्वाज, विकासनगर, उत्तराखंड