लेखक की कलम से

मैं स्त्री …

अपने जीवाश्म और विरोध के साथ

अक्सर जूझती हूँ मैं

विरोध करने की बेबाकी नहीं

और ना ही अपनी बात मनवाने का

अदम्य साहस मुझमें

 मैं स्त्री,

रहती हूँ तुम्हारी खींची हुई परिधि में।

नही लांघती तुम्हारा दिया हुआ आसमाँ भी.

बस अमर्यादित हो करती हूँ

ख़ुद के विचारों को वाष्पित..

 

सुनो…

यूँही अन्तरनांद लिए मन का

पा लेती हूँ ख़ुद के मरे हुए वजूद का

बिखरा पिंडदान ..!

 

क्योंकि मैं मुक्ति के लिए किसी आधार और रस्मों के

तहत अपने को कैद नहीं करना चाहती

इसलिए रोज करती हूँ ख़ुद का पिंडदान..

 

मुक्त हो पाती हूँ तभी

अवांछित ख़्वाहिशों से जो

मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर है..

 

हाँ मैं स्त्री

ख़ुद शिवि हूँ,ख़ुद ही माटी हूँ

 

अपने धरातल की स्वामिनी भी..

 

©सुरेखा अग्रवाल, लखनऊ

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