लेखक की कलम से

नारी के सिंगार …

खनर-खनर बाजे, देखव कांच के चूड़ी।

नारी के सिंगार ल, जेन ह करथे पूरी।।

चाँदी के सुता सुग्घर, चम-चम चमके।

जेन ह पहिरे वोकर, चेहरा ह दमके।

 

सुहागन के सुहाग के, हरे जीवन जोती।

लकलकावत रहिथे, गोरी के माँगमोती।।

पाँव के अंगुरी म, पहिरे जाथे बिछिया।

बिहाव के शगुन हरे, छोटकुन बिछिया।।

 

जुगुर जुगुर बरत हे, देख वोकर अंगुरी।

मया के चिन्हारी-पहिरे हे वोहा मुंदरी।।

पहुंची ह बांहा के, सुघरई ल बने बढ़ाथे।

नारी के रंग रूप ल, गज्जब के सजाथे।।

 

रेशम के धागा म, पइसा के रिथे संगा।

चाँदी के बंधा ह, सुहावे नारी के अंगा।।

नाक के नथली ह, नारी के सिंगार हरे ।

सुहागन के सुहाग के, इही चिन्हार हरे।।

 

करन फूल खिनवा, कान म झूलत रिथे।

नारी के प्रेम अउ, समर्पण दिखत रिथे।।

कनिहा के करधन, गृहलक्ष्मी के धन हरे।

नारी के खुशी ल, येहा सच म दुगुन करे।।

 

रुनुक झुनुक बाजे, जब-जब पाँव के पैरी।

मन डोले पिया के, अउ जल-जल मरे बैरी।।

ऐंठमुड़ी रिथे, जेन ल सबझन ऐंठी कहिथे।

दाई दीदी मन ह जेला, हाथ म पहिरे रिथे।।

 

लाली के लुगरा, अउ लाली-लाली सिंदूर।

गोरी के रूप बढ़ाए, पांव के लाली माहुर।।

पिया संग मया बर, जेन कराथे बेकरार।

भारी नखरा दिखाथे, पाके सोनहा हार।।

 

लाम लाम बेनी म, खोंचाथे चांदी के पिन।

मोंगरा के गजरा ह, बनाथे वोला क्वीन।।

आँखी म आंजे कजरा, खाये बिरोपान।

रूप कैसे बखानों, जेला बनाये भगवान।।

 

©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)             

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