लेखक की कलम से

फागुन माह और प्रेमोत्सव का छठा दिन… आलिंगन दिवस

हालाँकि कभी रूचि नहीं रही इस प्रकार के आयोजनों में, पर कभी ये प्रकृति मानव मन से ऐसा तादात्म्य स्थापित करती है कि बिना रुचि भी रुचि उत्पन्न हो जाती है। भाव हृदय में अपने आप जन्मते हैं, ये भाव ही होते हैं जो कलिका को बाध्य करते हैं। मधुकर के स्पर्श को इन्हीं भावों के वशीभूत कोई बदली पर्वत शिखर से लिपट जाती है। यही भाव बेचैन करते हैं जीवात्मा को उस अनंत विराट की खोज को जिससे बिछुड़ने के बाद बिना देह के बंधन में बँधे मिलना संभव नहीं।

यही भाव जीवात्मा को नदी की ऐसी धारा में परिवर्तित करते हैं जो अपने तटबंधों में रहती हुई भी सागर की खोज में बहती है और अंततः उसी में मिलती है—

 

नयनों से नयनों के अनुबंध स्वीकारें हैं।

प्रणय के मधुर संबंध स्वीकारें हैं।

इक सागर के आलिंगन की चाहत में,

नदिया ने ये तटबंध स्वीकारें हैं।

हर नदिया को उसके सागर का आलिंगन मिले इसी कामना के साथ—

©रचना शास्त्री, बिजनौर, उत्तरप्रदेश

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