लेखक की कलम से

कैसे कह दूं मां मैं बड़ा हो गया …

घुटनों के बल चलता था, मां कहती आज मैं बड़ा हो गया, कैसे कहूं मैं बड़ा हो गया।

पहली धड़कन भी मां के भीतर ही धड़की थी, जब खुली आंख तो पहला चेहरा भी तो मां का देखा था,

जुबां को सुर दिए मां ने खेलकर धूल से सना हुआ जब मैं आता था तो पर्याय गोदी में उठा लेती मां।

काला टीका आज भी मां लगाती है, आज भी खाना अपने हाथों से खिलाती है, …

कैसे कह दूं मैं बड़ा हो गया …

बिन लोरी, बिन कहानी सुने ना कभी सोता था।

जब भी घबराता हूं, मां के आंचल का सहारा पाता हूं।

सर पर रहता सदा मां का साया, हर मुश्किल से बचाता मां का साया।

आज भी मां मुझको आंखों का तारा कहे, कैसे कह दूं मैं बड़ा हो गया।

उस मां के प्यार की क्या कोई मिसाल दे, काट कर पेट अपना बच्चों को खिलाती मां,

भूलकर थकान अपनी बच्चों को शीतल छाया देती मां।

नई ऊंचाई, नया आधार, नया संसार, कोई भी चीज़ नहीं सच है…..

धरती से अम्बर तक, गहरा वो समन्दर तक बस एक मां प्यार सच है।

©प्रेम बजाज, यमुनानगर

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