लेखक की कलम से
मैं राह देख रहीं हूँ …
कान्हा तो संग होरी खेलन की
मैं राह देख रहीं हूँ,,
राह देख रही हुँ,रे कान्हा राह रहीं हूँ
कान्हा तो संग,,,,,,
बीती जाएं मेरी उमरिया, छलिया तुम ना आए
जिया मेरा अकुलाय साँवरे,, व्याकुल मन घबराए,,
आज तलक मनमोहन तेरी,,बाट देख रहीं हूँ,,,,
कान्हा तो संग होरी …………..
हैं कजरारे नैना तेरे,, बहिंया प्यारी प्यारी
घुंघर वाले बाल हैं तेरे चाल तेरी मतवारी
तुझ संग प्रीत लगा के कान्हा, हो गई मैं मतवारी
कान्हा तुझ संग …………..
जबते चले गए हो कान्हा कछू न मोकूं भावे
सूनो सूनो मन का अंगना याद तोरी तड़पावे
और बा दिन होरी होगी मोरी जिस दिन भी तू आवे
कान्हा तुझ संग होली खेलन की मैं राह देख रही हूँ।।
©गार्गी कौशिक, गाज़ियाबाद