लेखक की कलम से

सूखा …

 

 

अंतस है कुछ सूखा सूखा,

प्रेम का कुछ भूखा भूखा।

 

जिंदगी की अंधी दौड़ में,

प्रेम रह गया पीछे पीछे,

स्वार्थ की अंधी दौड़ में,

रहा मन ही सूखा सूखा।

 

अंतस है सूखा सूखा,

प्रेम का भूखा भूखा।

 

न रह गयी अपनत्व की बातें,

खो गए सब रिश्ते नाते,

जिंदगी की दौड़ में,

रहा हर रिश्ता सूखा सूखा।

 

अंतस…

प्रेम….

 

खोता चला गया वो बचपन,

तकनीकी का हुआ जो आगमन,

खोती गयी वो किलकारियां,

हुआ ये बचपन भी रूखा रूखा।

 

अंतस…

प्रेम…..

 

बनाते गए नई आशियाने,

वृक्ष भी तो बहुत उखाड़े,

बदल गया हर एक मौसम,

हर मौसम ही सूखा सूखा।

 

अंतस…

प्रेम….

 

काश! प्रेम कुछ पनप  जाए,

विवेक जरा तो खिल जाए,

न रहे अंतस सूखा सूखा,

न सोये कोई भूखा भूखा।

 

©अरुणिमा बहादुर खरे, प्रयागराज, यूपी            

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