लेखक की कलम से

नेताजी के मौत की गुत्थी अब तो सुलझे…..

के. विक्रम राव

भारत अपने वीरतम पुरोधा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की 125वीं जन्म जयन्ती मना रहा है। करीब 75—वर्ष हो गये (18 अगस्त 1945) नेताजी की वायुयान दुर्घटना में कथित मृत्यु के। गांधीजी अंत तक मानते रहे कि नेताजी नहीं मरें थे। बापू के साथ रहे पत्रकार शैलेन चटर्जी ने लिखा (”विदुर” प्रेस इंस्टीट्यूट आफ इंडिया की पत्रिका, मार्च 1998, पृष्ठ,17—20)। मगर उनकी मृत्यु का रहस्य अभी तक गुप्त है। प्रधानमंत्री कार्यालय से सूचना के अधिकार नियम के तहत कई बार मांगा गया, पर कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं मिला। हालांकि जवाहरलाल नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह सरकारों से पूछा जा चुका है।

एक रपट के अनुसार ढाई दशक पूर्व (1995) में मास्को अभिलेखागार में तीन भारतीय शोधकर्ताओं ने चंद ऐसे दस्तावेज थे जिनसे अनुमान होता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस कथित वायुयान दुर्घटना के दस वर्ष बाद तक जीवित थे। वे स्टालिन के कैदी के नाते साइबेरिया के श्रम शिविर में नजरबंद रहे होंगे। सुभाष बाबू के भतीजे सुब्रत बोस ने प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव से इसमें तफ्तीश की मांग भी की थी। इसी आधार पर टोक्यो के रेणकोटी मंदिर में नेताजी की अनुमानित अस्थियां कलकत्ता लाने का विरोध होता रहा।

उनकी ताईवान में कथित वायुयान दुर्घटना में हुई मृत्यु के आठ दशक बीते। अब प्रश्न ज्यादा ज्वलंत हो जाता है कि नेताजी की मौत पर पहेली आज भी क्यों अनबूझी रही है? सुभाष बोस जन्म शताब्दी समारोह समिति में अटल बिहारी वाजपेयी और प्रणव मुखर्जी रहे। अटलजी की राष्ट्रभक्ति पर संदेह नहीं है और प्रणव बाबू तो बंगाल के ही हैं, जहां सुभाष बाबू की मूर्ति पूजा तक होती है। फिर ये दोनों महानुभाव अपने अधर क्यों नहीं खोल पाये ? सोवियत संघ के विघटन के बाद नई कम्युनिस्ट-विरोधी रूसी सरकार ने अपने ऐतिहासिक दस्तावेज सार्वजनिक करने शुरू कर दिए हैं। इनसे स्टालिनवादी सरकार और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का भारतीय स्वाधीनता आंदोलन पर बदलता रुख, भारत पर दबाव डालने के उनके तरीके, हिटलरवादी जर्मनी से पहले मित्रता फिर विग्रह, साम्राज्यवादी चर्चिल से स्टालिन की लंबी यारी आदि पहलू उजागर होते हैं।

इसी परिवेश में सुभाषचंद्र बोस पर मिली इन अभिलेखागार वाली सूचनाओं पर खुले दिमाग से गौर करने की तलब होनी चाहिए थी। यह भारत के साथ द्रोह और इतिहास के साथ कपट होगा यदि नेहरू युग से चले आ रहे सुभाष के प्रति पूर्वाग्रहों और छलभरी नीतियों से मोदी सरकार के सदस्य और जननायक भी ग्रसित रहेंगे और निष्पक्ष जांच से कतराते रहेंगे। संभव है कि यदि विपरित प्रमाण मिल गए तो जवाहलाल नेहरू का भारतीय इतिहास में स्थान बदल सकता है, पुनर्मूल्यांकन हो सकता है।

गौर कीजिए कुछ तथ्यों पर। वरिष्ठ कांग्रेसी सांसद एस.एन. सिंह ने नेहरू के समय में ही यह बात उठाई थी कि सुभाष बोस ताईवान के समीप 18 अगस्त 1945 के अपराह्न दो बजे वायुयान दुर्घटना में नहीं मरे थे। जापान की आसन्न पराजय के कारण सुभाष ने अपनी रणनीति संशोधित कर दी थी। संभवतः अपनी मौत की अफवाह उनकी इसी रणनीति की एक कड़ी थी। इस कांग्रेसी सांसद ने ”धर्मयुग” में डाॅक्टर धर्मवीर भारती के संपादकत्व के समय एक लेखमाला प्रकाशित की थी जिसमें घटनाक्रम का सिलसिलेवार विवरण भी है।

इन लेखों के अनुसार अपनी मृत्यु की खबर के बाद सुभाष बोस जापान-अधिकृत मंचूरिया में एक बौद्ध मठ में भिक्षु के लिबास में रहे। उन्होंने भारत के स्वतंत्र होने के साल भर में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को संदेश भिजवाया कि उन्हें भारत लाने की व्यवस्था की जाए। इसका कारण यह था कि तब सुभाष बोस पश्चिमी राष्ट्रों के लिए जर्मनी और जापान से सहयोग के कारण एक युद्ध अपराधी थे और मृत्यु दंड के अभियुक्त थे। सोवियत संघ और राष्ट्रवादी चीन के जनरल च्यांग काई शेक के अलावा ब्रिटेन भी सुभाषचंद्र बोस को अपराधी मानता था।

इधर सुभाष बाबू का गोपनीय समाचार मिलते ही (इस कांग्रेसी सांसद को प्राप्त सूचना और प्रमाण के अनुसार) जवाहरलाल नेहरू ने चीन की सरकार को यह संदेश भेजा और रपट मांगी। तब तक मंचूरिया के इलाके को सोवियत संघ ने चीन को सौंप दिया था क्योंकि जापान की हार होते ही मंचूरिया पर सोवियत संघ का कब्जा हो गया था। इसी दरम्यान कम्युनिस्टों ने पूरे चीन पर अपना शासन जमा लिया।

माओ जेडोंग की लाल सेना मंचूरिया भी पहुंच गई थी। फिर वही हुआ होगा। नए प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई ने सुभाषचंद्र बोस को बौद्ध मठ से पकड़कर स्टालिनवादी रूस को सौंप दिया। दैनिक जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ पर एक प्रकाशित लेख में ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली को जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखे पत्र का उद्धरण भी है कि स्टालिन ने सुभाषचंद्र बोस को रूस-चीन सीमा पर शरण दी थी। इस कांग्रेसी सांसद ने कुछ प्रमाण भी पेश किए जिनके अनुसार साइबेरिया के श्रम शिविर के कुछ कैदियों ने अपनी रिहाई के बाद मास्को में संकेत दिया था कि एक भारतीय कैदी भी उनके साथ था।

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