लेखक की कलम से

खैर जाने दो…

तेरे वाजिब बातों पर मैं कुर्बान

वजूद पर मेरे सवाल

स्वयं जिम्मेदार ठहरा कर

केयर का देते हो इसे नाम

खैर जाने दो…

 

तेरे हाथों से ज़हर पी लेने को तैयार

इतना ही था विश्वास ,

कहकर उबले मेरे बातों पर

बुलाते घर के बड़ों को

बीच बाज़ार खैर जाने दो..

हर रिश्ते को अटूट बनाती आई

इतना ही दिल में जगह बनाई

खूब सुनाई

क्या घर से सीख कर आई

खैर जाने दो..

 

जो जी चाहे करना

अपना ही घर समझना

ना जाने क्यों

दरवाज़ा खुला होकर

हर बार रिहाई सा

महसूस करवाना,

ये करने दिया

ये सवाल पूछने का हक़?

और मोहलत

वक्त रहते कहने का हक़

किसने दिया?

खैर जाने दो…

 

श्रृंगार मेरे रूप को सजाता

उसमें कुछ कमी लगती तो

अंगार की बौछार तुम्हारे लबों से नहीं

तो आंखों से कहर ढाती

खैर जाने दो…

 

मेरा पूरे साथ की चाहत रखने वाले

क्या तुम अपने गले में

मेरे नाम की तख्ती लगाते हो?

क्या मेरे नाम का सिंदूर सजाते हो?

क्या मेरे से

अपने घर जाने की

इजाज़त मांगते हो?

क्या खाने में कभी कमी हो तो

अपनी बहन या मां पर

वैसे ही गुस्सा निकलते हो?

क्या इंसान को

इंसान साबित करने को

संस्कारों को दांव पर लगाते हो?

अगर नहीं तो

अगर हम काबिल हैं,

तो तुम शायद हमारे काबिल नहीं

खैर जाने दो….

 

अब कुछ नहीं कहना..

खैर जाने दो….

 

©हर्षिता दावर, नई दिल्ली                                               

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