लेखक की कलम से
जंगल….
ये जंगली लोगों का समूह है और चाहता है जंगल,
अंतस में भी बाहिर भी,
रास नहीं आतीं इसे, वो कोमल नयी पल्लवित हुयीं
कोपलें किसी शाख की,
उसे तो बस पसंद है,’खेलना ‘,
परवाह नहीं टूटें या रहें या कुचल कर दम तोड़ जायें,
बड़े जतन से रोपी और पाली गयीं वो बेलें,
न परवाह है उस बागबां के किलसते ॵसुओं की,
जो न सह सकेंगे,बिफर पडेंगे,मायूसी में,
देखकर,दबी कुचली उन नन्ही कोपलों को,
जिनको नित रोज देखा करता था वो,बड़ी हसरतों से,
तिल-तिल बड़ी होते हुए,एक दिन परिपक्व होकर फूल
बन जाने की चाह में
©विभा मित्तल, हाथरस उत्तरप्रदेश