लेखक की कलम से

मानसिक स्वास्थ्य …

‘हताशा’ तीन अक्षर का यह शब्द सुनने में जितना सरल लगता है, वास्तव में उतना है नहीं। इससे रूबरू होना और इसमें गोते लगाकर निकल जाना, काफ़ी कठिन होता है। हममें से हर कोई जीवन के किसी ना किसी मोड़ पर इससे गुजर चुका होता है। हताशा के पश्चात् नकारात्मकता और अवसाद जीवन में प्रवेश पाते हैं। जिसकी परिणति काफ़ी भयावह हो सकती है।

हताशा और अवसाद मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े हैं। वर्तमान में यह काफ़ी सुनने को मिल रहा शब्द है। पूर्वगामी समय में इससे अधिक परिचय नहीं था, किंतु निःसन्देह ही यह अस्तित्त्व में था । मानसिक स्वास्थ्य को लेकर आज़ जो आंकड़े प्रदर्शित हो रहे हैं, वह समाज के रूप में काफ़ी चौंकाने और डराने वाले हैं।

आज व्यक्ति अकेलेपन के जिस भंवर में फंसा है, वह वाकई खतरे की घंटी है। यह अकेलापन उसके अस्तित्व को ही अपनी जद में ले चुका है। व्यक्ति हताशा के रास्ते अकेलेपन, नकारात्मकता, अवसाद तक आ पहुँचता है और कई बार कुछ गलत कदम भी उठा बैठता है।

यह ऐसा दौर होता है जहाँ व्यक्ति मात्र बाहरी नहीं; वरन हर पल खुद से, अपने विचारों जूझता है। वह उदासी,  दोस्तों, परिवार और समूह से दूर रहना, मूड बार बार बदलना, असामान्य बर्ताव, घबराहट या डर लगना, नींद ना आना, अरुचि, भूख कम लगना, ज़िंदगी नीरस व बोझ लगना जैसे लक्षणों से गुजरता है। और यह होना असामान्य नहीं है, असामान्य है इसे नहीं समझना और स्वीकारना।

पिछले कुछ दशक से यह एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। आज इसके जिम्मेदार कोई गहन कारण नहीं। अभुतपूर्व वैज्ञानिक और तकनीकि विकास के इस दौर में हम अपने पूर्वजों की तुलना में अत्यधिक आरामदायक और विलासपूर्ण जीवन जी रहे हैं। शारीरिक और मानसिक रूप से क्रियाशीलता बदली है। आज सुख सुविधा के प्रत्येक साधन उपलब्ध है किंतु अभाव हो गया है, मानसिक शांति एवं संतुष्टि का। दुनिया बंद आँखों से शक्ति और संपत्ति के पीछे अबाध गति से दौड़ रही है। विगठित परिवार, अपार्टमेंट संस्कृति, कमजोर, धार्मिक आस्था, उपभोक्तावाद और भौतिकतावाद वर्तमान का यथार्थ बन चुका है और इसके परिणामस्वरूप हम दुश्चिंता, कुंठा, तनाव और हताशा जैसे मानसिक विकारों के साथ जीने को मजबूर हैं। हंसते मुस्कुराते चेहरों के पीछे कई बार गहन उदासी छुपी होती है जिसे हम ना पढ़ पाते हैं और ना समझ पाते हैं।

उपचार व रोकथाम के अभाव में नव वयस्कों व युवाओं का बौद्धिक विकास व उत्पादकता प्रभावित होती है। वे गहन अवसाद से आत्महत्या की ओर अग्रसर होते हैंगहन अवसाद से आत्महत्या की ओर अग्रसर होते हैं एक-एक आत्महत्या एक मानसिक व सामाजिक ढांचे की कमियों से होने वाली मौत है और यह हमारे समाज की असफलता है। एक-एक आत्महत्या मानसिक व सामाजिक ढांचे की कमियों से होने वाली मौत है और यह हमारे समाज की असफलता है।

मानसिक स्वास्थ्य को वर्जनाओं के अंधेरे से निकालकर वैश्विक बहस का मुद्दा बनाया जाए। इससे जुड़ी भ्रांतियों व रूढ़ियों का सार्वजनिक रूप से खंडन किया जाए। लोग सहजता से इसके बारे में चर्चा कर सकें, ऐसा माहौल बनाया जाए। इसके प्रबंधन को शिक्षा तंत्र का हिस्सा बनाकर कम उम्र से ही सिखाया जाना चाहिए। स्वस्थ युवा ना सिर्फ स्वयं सक्षम बनता है बल्कि सक्षम समाज व देश का भी निर्माण करता है। भारतीय ज्ञान, परंपरा और जीवन – पद्धति,  दया, करुणा,  प्रसन्नता,  परोपकार का भाव, अपनापन आदि भी इसके प्रबंधन में सहायक हैं।

इसके उपचार के रूप में व्यक्तिगत व सामुदायिक स्तर पर पर प्रयासों की आवश्यकता है। व्यक्तिगत स्तर पर लक्षणों को समझकर अपनों से जुड़ना और उनसे बात करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। किताबें पढ़ना, सकारात्मक लोगों से जुड़ना, खुद से प्रेम, अपनी रुचियों को समय देना एक सकारात्मक उपचार हो सकता है। प्राकृतिक परिवेश के बीच रहना तथा योगा से जुड़ना भी एक अच्छा विकल्प है। किंतु अन्य बीमारियों की तरह इसमें भी डॉक्टर से सलाह लेना अत्यावश्यक है।

इसके उपचार में समाज का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। उस व्यक्ति का मजाक ना बनाएं, उसे लज्जित ना करें। संवेदनशीलता अपनाकर उसे समुचित स्नेह व सम्मान दें। दूसरों को लेकर जल्दी धारणा विकसित ना करें। उन्हें सुनें,  समझें व इसे एक सामान्य रूप में लें। एक स्वस्थ मस्तिष्क स्वास्थ्य समाज का निर्माण कर सकेगा।

 

©भारती शर्मा, मथुरा उत्तरप्रदेश

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