लेखक की कलम से

नारी हे प्रकृति …

हे! नर, नारी ल नारायणी मानों,

जनम जन्मांतर के संगवारी मानों।

नारी बहिनी, अउ बेटी, पत्नी,

नारी ल अपन महतारी मानों।।

 

एक नारी के भीतर म समाय हे,

अद्भुत क्षमता शक्ति ईश्वरीय।

नारी के झन अपमान करो,

नारी ह हरे सौंहत परमेश्वरी।।

 

नारी ह ये दुनिया ल सिरजाय हे,

ये बात ल सब काबर भुलाय हे।

सब कहिथे पति ह परमेश्वर होथे,

फेर परमेश्वरी ह धर धर काबर रोथे।।

 

संस्कृति अउ संस्कार ह का,

सिरिफ नारी मन के ठेका हे।

राम ल आदर्श मनइया नर ह,

मर्यादा ल काबर फेंका हे।।

 

नर पुरूष त नारी ह प्रकृति होथे,

नर ह संसार त नारी संस्कृति होथे।

एक दूसर के बिना, दुनों अधूरा हे,

प्रेम समर्पण बिन गृहस्थी अधूरा हे।।

 

एक सिक्का के दु पहलू होथे,

नर अउ नारी ह।

एक दूसर बिन कइसे चलही,

ये गृहस्थी के गाड़ी ह।।

 

जब नर ह बनही राम,

अउ नारी ह बनही सीता।

तभे सार्थक होही,

इंहा रामायण अउ गीता।

 

©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)

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