लेखक की कलम से

क्यों भला प्रभु हो गये हैं काठ …

 

न्याय का अरु, सत्य के हर कर्म का

हो गया है नाठ.

 

मूल्य का सत्कर्म का अरु धर्म का

अब नहीं है पाठ.

 

लोक मंगल नीति संग हर रीति का

अब कहां है ठाठ ?

 

भर रहे घर, लोग सारे कर रहे

एक के हैं साठ.

 

अर्थ ही या यों कहो कि अनर्थ ही

बन गयी है गांठ.

 

स्वार्थ छाया है मही और नभ सकल

औ दिशाएं आठ …

 

 

©आशा जोशी, लातूर, महाराष्ट्र

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