लेखक की कलम से
बोले मन का पपीहा
पेड़ों की शाखों पर आ बैठे पंछी
शाखें खुशी में झूम उठी
बिजली के तार पर बैठे तो
तार भी बन गए उनका झूला
बेज़ान इमारतों की खिड़कियों , छज्जों
ने भी दिया उन्हें आसरा बसेरा
न जाने कब मनुष्य बन गया कागभगोड़ा
चाहती हूं अपने जीते जी वह दिन आए
जब पंछी हमारे कांधो पर बैठे
और हम चहक भरे गीत गाए