लेखक की कलम से
पिता का दर्द …
सौंपकर पुष्प अपने हृदय वाटिका का ,
अश्रु धारा से पलके भिगोता रहा ,
दिल के टुकड़े को काट कर दे दिया ,
सिल गये होठ बस बुदबुदाता रहा ,
एक दाता बना है याचक यहां ,
दोनों कर जोड़ कर सिर झुकाता रहा ,
पाला पोषा जिसे खुद को बलिदान कर ,
आज उसके लिए गिड़गिड़ाता रहा ,
ऐसे लगता हो जैसे सजायाफ्ता ,
नीचे गर्दन किये बस सिसकता रहा ,
दान कन्या का कर सब कुछ अर्पण किया ,
आंखें रोती रही दिल बिलखता रहा ,
सब विदा हो गए डोली उठ कर चली ,
वह तो बदहोश पागल भटकता रहा ,
एक ही लफ्ज़ उसकी जुबां पर रहा ,
नाम बेटी का ही वो तो जपता रहा ,
©केएम त्रिपाठी, प्राचार्य, मुजफ्फरपुर, बिहार