लेखक की कलम से

तुम तराशो अगर….

 

तुम तराशो अगर तो निखर जाएंगे

कांच की तरह वरना बिखर जाएंगे

 

प्यास अब तक बुझी है कहाँ प्राण की

हर घड़ी कट रही जैसे सदियां कटीं

कंठ प्यासा बदन जेठ सा है तपा

है पपीहे की चाहत अमिय बूंद की।।

 

बन के सावन अगर तुम बरस जाओगे

हम बहारों की मानिंद खिल जाएंगे।

 

लाख सजदे किए कर चुके मिन्नतें

हैं चढ़ाए हृदय के कई अर्घ्य भी

सूखकर फूल श्रद्धा के झर झर गए

दीद की हसरतें हैं वहीं की वहीं।

 

मिल न पाए जो तुम प्राण कांधों पे रख

तेरी गलियों से होकर गुज़र जाएंंगे।

 

तेरी चाहत लिए ढूंढते ढूंढते

सारी दुनिया मे भटके हैं हम दर-ब-दर

चाह जिनकी नहीं थी कभी, वे मिले

सिर्फ़ तुम ना मिले था यही एक डर।

 

एक आशा तुम्हीं रौशनी की  बची

इन अंधेरों मे घिरकर किधर जाएंगे।

 

जोड़करअपनी सांसो की हर-इक कड़ी

भर गई अपनी यादों भरी डायरी

अब सभी इसके पन्ने बिखरने लगे

ज़िन्दगी बन गई दर्द की शायरी।

 

प्रीत का तुम जो मरहम लगा दो अगर

वेदना से हृदय की उबर जाएंगे।

 

आ भी जाओ कि अब भी बहुत वक़्त है

उम्र ठहरी हुई है घड़ी-दर-घड़ी

आंख पुरनम है और प्यास है जेठ की

है तुम्हारी प्रतीक्षा कसम से बड़ी।

 

अपने ओठों की मदिरा पिला दो अगर

फिर किसी आबे-जमजम को क्यों लाएंगे ….

 

©दिलबाग राज, बिल्हा, छत्तीसगढ़

Back to top button