लेखक की कलम से

नारी हूँ मैं ….

अच्छाईयों की असंख्य परिभाषा का स्पर्श हूँ, या यूँ कहो निचोड़ हूँ धरती से आसमान तक फैली खूबसूरती का।

 

संसार को समर्पित शृंगार हूँ, हर जीव के बीज को रक्षता नीड़ हूँ, पाहन सी कठोर कभी तो कभी फूलदल सी कोमल हूँ।

 

वसुधा सी पावक धैर्य धरा का धरे सृष्टि का संतुलन हूँ, ऐश्वर्य हूँ, अर्धांगनी हूँ ममता की चौखट पर महकता वात्सल्य का झरना हूँ।

 

क्षमा की क्षितिज हूँ, वो सत्य हूँ जो यमराज के चक्रव्यूह को छेद कर सरताज को वापस लाने का ख़ुमार रखती है

पाक हूँ उस आँगन की मिट्टी सी जिसे गूंद कर माँ दुर्गा की प्रतिमा संवरती है।

 

कल्पना हूँ कवि मन में बसी गज़लों के मतलों की नींव हूँ या कमान हूँ उस धनुष की जिसे राम की हथेलियों ने छुआ था,

सत हूँ सीता का, तो द्रौपदी के खुले केश का प्रण हूँ।

 

वीरता का विहान हूँ छवि हूँ लक्ष्मी बाई की कभी, तो कभी मधर टेरेसा सी करुणा की मूरत हूँ, कालिदास के मन से उठा वैराग्य हूँ, अहल्या सी मूर्त भी हूँ तो कभी यशोधरा सी अड़ग हूँ।

 

अतुल्य, अमूल्य आसमान सी हूँ, माँ के रुप में हर बच्चें को रक्षता वितान हूँ,

धूप हूँ, छाया हूँ, बारिश की बूँद सी शीत हूँ समुन्दर की गहराई हूँ।

 

शिवजी की जटा जिसका उद्गम है उस गंगा की धार सी गतिवान हूँ, संस्कृति हूँ, सभ्यता हूँ हर ग्रंथों का सार हूँ। मैं लज्जा की परतों में सिमटी नारी हूँ।

 

    ©भावना जे. ठाकर    

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