लेखक की कलम से

विधवा का जाल …

 (कहानी)

 

पति के मरते ही वह औरत विधवा हो गई। जो दस साल से पति से अलग रह रही थी। जिसने पति पर दो केस किए हुए थे। मृत्यु के समय पति के वारंट भेजे हुए थे। जीते -जी जिस पति की सूरत नहीं देखी। अर्थी से कफ़न उठाकर वह उसके दर्शन कर रही थी। ज़ोर -ज़ोर से चीख़ कर दुःख प्रकट कर रही थी और समाज उसके प्रति अपनी संवेदना प्रकट कर रहा था। वही समाज जो उसे दो दिन पहले कुलटा कह रहा था। आज सारा कलुष भूल गया था। मुहल्ले की छटी हुई औरतें जो उसे गालियाँ देती थीं। उसे सुझाव दे रही थीं-“यही मौक़ा है घर में घुसने का। बस! ससुर को अपने हाथ में कर लो। पति की सरकारी नौकरी अब तुम्हें मिल जाएगी। तुम्हारे अच्छे दिन तो अब शुरू हुए हैं।”

जिस पति को बीमारी के दौरान हाथ नहीं लगाया। जो अपने बच्चों को देखने के लिए तड़पता मर गया। जिसने मरने से पहले 37 बार उसे फ़ोन किया। परंतु उसका फ़ोन नहीं उठाया। जो रात को चीख़ता हुआ घर में भागता फिरता था। परन्तु वह एक बार मायके गई तो फिर लौट कर उसे नहीं देखा। इसी ग़म में सास स्वर्ग सिधार गई। वह नहीं आई। जिस पति ने दो बार आत्महत्या की कोशिश की। उसे फ़ोन कर बताया तो उसने कहा -“अभी मरा तो नहीं?जब मर जाए तो बताना। ”

सफ़ेद चुनरी ओढ़ कर वह उसकी अस्थियाँ विसर्जित करने गई। इससे क्या उसकी आत्मा को शांति मिल जाएगी ? क्या ऐसी होती है विधवा ?”-ससुरजी ने कहा।

विधवा होते ही उसने ससुराल में डेरा डाल दिया। वह प्रसन्न हो कर सबको बताती -“पचास हज़ार की नौकरी मुझे मिल जाएगी। क्योंकि उसके पास विधवा का सर्टिफ़िकेट है और सबकी सहानुभूति उसके साथ है। ससुराल पक्ष ने बच्चों के लिए समझौता कर, सब केस बंद करवा कर उसे नौकरी दिलवा दी। नौकरी लगते ही उसने जाल बिछाना शुरू किया। मोहल्ले की एक आवारा विधवा औरत को माँ बना लिया और उसे सिपाही बनाकर समाज में छोड़ दिया। वह हर जगह उसकी तरफ़दारी करती। ससुराल पक्ष के बारे में बुराइयाँ करती -“बेचारी विधवा के साथ अन्याय हो रहा है। इसकी सहायता करो। ”

आदमी अपने घर में चाहे कितना भी अन्याय कर ले पर दूसरे के घर में अन्याय बर्दाश्त नहीं करता। यह कमीने इंसान की फ़ितरत है। जहाँ चार लोग जमा होते, मंदिर, गुरुद्वारे या शादी-ब्याह में। वह औरत वहीं उसका क़िस्सा सुनाने लगती -“बेचारी विधवा को स्पोर्ट करो। बेचारी विधवा के साथ अन्याय हो रहा है। ”

इधर विधवा बन -ठन कर नौकरी पर जाने लगी। इतने काजल, बिंदी वैवाहिक जीवन में नहीं लगाए थे जितने अब लगाने लगी। नाख़ून से नेलपोलिश कभी नहीं उतरती थी। दफ़्तर के एक अधिकारी को घर लाने लगी। जो घर के बच्चों के काम करवाने लगा। ससुर से भी दोस्ती बढ़ाने लगा। यह ससुरजी को क़ाबू करने वाला प्यादा था। छुट्टी के दिन या ओवर टाइम का बहाना कर इसके साथ वह पूरा -पूरा दिन ग़ायब रहती। यह आदमी ससुरजी के काम भी करवाता और संतावना भी देता -“मुझे आप अपना बेटा समझिए। मैं आपकी सेवा करूँगा। ”

और करता भी। उनकी गाड़ी ठीक करवानी, सर्विस करवानी। उनकी ज़मीन -जायदाद की जानकारी लेने के लिए उनके साथ पूरा -पूरा दिन घूमना और उनका मन पढ़ना और बदलना।

ससुरजी भी अपने जीवित बेटे से अधिक मृत बेटे की जगह आए नए बेटे पर ज़्यादा भरोसा करने लगे। बूढ़े ससुर को मूर्ख बनाकर एक बड़ी ज़मीन धोखे से विधवा के नाम करवा दी।

पड़ोस के एक दम्पत्ति जिन पर ग़बन का केस चल रहा था। उन्होंने विधवा से साँठ -गाँठ कर कुछ सम्पत्ति के लालच में ससुर को बहला-फुसला कर सारी वसीयत भी विधवा के नाम करवा दी।

विधवा के रास्ते का एक ही बड़ा रोड़ा था। उसके पति का भाई। उसके ख़िलाफ़ भी विधवा ने जाल बुना। ससुर को उसके ख़िलाफ़ भड़काना शुरू किया। उसपर आरोप लगा कर। उसका घर में आना बंद करवाया। बोलचाल बंद करवाई। उसके कुत्ते तक पर केस करवाया कि यह हम पर भौंकता है। घर के सारे गहने उठाकर ले गई और इल्ज़ाम उस बेचारे पर। नौबत यहाँ तक आ गई कि ससुर जी अपने बेटे को देखते ही गालियाँ देने लगते।

वह विधवा जो कहती थी -“मैं ससुरजी की सेवा करने आई हूँ। मुझे कोई लालच नहीं। ”

सब कुछ ले कर अब ससुरजी को असली रंग दिखाने लगी।

पानी जब सिर से गुज़र गया तो ससुरजी ने अपने उस बेटे को बुलाया। जिसे विधवा बहू के आने के बाद वे भूल ही गए थे। जिसका विधवा बहू के आरोपों के कारण उन्होंने जीना हराम कर रखा था। उन्होंने रो -रो कर बताया -“एक महीने से मेरे कपड़े नहीं धुले। एक हफ़्ते से मैं या तो ख़ुद बनाकर खा रहा हूँ या बाज़ार से लाकर खा रहा हूँ। दो दिन से मैं बीमार हूँ। जिस औरत को मैं बेटी बनाकर लाया था। वह मुझे धमकियाँ दे रही है कि पुलिस में तुम्हारी शिकायत कर दूँगी कि विधवा को तुम परेशान करते हो। ”

ससुरजी बिलख -बिलख कर रोने लगे -“यह विधवा नहीं है। यह मेरी आँखों में धूल झोंक रही है। यह अपने दफ़्तर के अफ़सर के साथ – – -। ”

वे प्रलाप करने लगे -“मैंने ख़ुद अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार ली। जो इस औरत को बेटे के मरने के बाद घर में घुसने दिया। तुमने तो कहा भी था कि इसे जो कुछ देना है दे दो। पर अब घर में मत घुसने दो। मगर मैं बच्चों के कारण रहम खा गया। बच्चे भी इसी की तरह हैं। जब दस साल वहीं ननिहाल में पले -बढ़े हैं तो उनका हमसे क्या मोह होगा। ”

पुत्र ने ढाढ़स बँधाई-“आप शांत हो जाएँ। आपका खाना मेरे घर से आएगा और आपके कपड़े मैं ख़ुद धोऊँगा। ”

सहानुभूति के शब्द सुन कर उन्होंने बताया -“इन्होंने मिलकर मेरी संपत्ति अपने नाम करवा ली और वहाँ क़ब्ज़ा कर लिया। मुझे धक्के मारे। बच्चों ने भी अपशब्द बोले। ”

पुत्र ने फिर कहा -“आप चुप हो जाएँ। आपने चाहे उसकी बातों में आकर मेरे साथ कैसा भी सलूक किया। पर मैं अपना कर्तव्य भूला नहीं हूँ। आपकी सेवा करना मेरा फ़र्ज़ है। मैंने माँ की भी सेवा की। आपकी भी करूँगा। ”

अगले ही दिन वे वक़ील के पास गए उन्होंने अपनी संपत्ति वापस लेने के लिए सीनियर सिटीज़न के रूप में अर्ज़ी दी। वक़ील ने समझाया -“माना आप सीनियर सिटीज़न हो पर उसके पास विधवा का कार्ड है। यह कार्ड ताश के एक्के के समान है। विधवा का कहा, भगवान के कहे समान है। इस देश में। चाहे वह झूठ बोले। लोग उसी का साथ देंगे। एक औरत, दूसरा विधवा और तीसरा गाँव की औरत। आप बच कर रहना। घर में कैमरा लगवा लो। वह किसी भी हद तक गिर सकती है।” वक़ील ने उनके साथ -साथ जेठ जी को भी समझाया।

ससुरजी सुबह -शाम रोते रहते। अपनी ग़लतियों पर पश्चात्ताप करते रहते। वे किसी भी तरह अपनी सम्पत्ति वापस पाना चाहते थे। उधर विधवा सफ़ेद चुनरी ओढ़ कर जगह -जगह सिफ़ारिश करती फिरती रही। हर कोई विधवा के जाल में फँसता रहता। इसी ग़म में ससुरजी बीमार पड़ गए। केस की तारीख़ पर तारीख़ पड़ती रही और उनकी तबीयत ज्यादा बिगड़ती गई। जेठ ने अपने उच्चाधिकारी मित्र से बात की तो उन्होंने भी यही कहा -“समाज में एक समय ऐसा था, जब विधवा के साथ अन्याय होता था। इसलिए उसके लिए क़ानून बने थे। परंतु आज विधवा अन्याय कर रही है और उससे बचने का कोई क़ानून नहीं है। मेरे एक मित्र की बहू ने उन्हें इतना ज़लील किया कि बेचारे ने ख़ुदकुशी कर ली। ”

ससुरजी की आत्मा शायद अपनी सम्पत्ति में ही अटकी थी। वे बिलकुल चारपाई पर आ गए। परंतु सुबह -शाम पूछते रहते -“तारीख़ कब है ?वक़ील क्या कहता है ? वे हर हाल में अपनी सम्पत्ति वापस चाहते थे। उधर विधवा अपने आशिक़ के साथ मिलकर नए – नए खेल -खेल रही थी। उसने जायदाद पर ससुरजी के ताले तोड़ कर अपने ताले लगवा लिए। बिजली का मीटर उतार कर अपने नाम का मीटर लगवा लिया। किसी ने ससुरजी को फ़ोन कर जानकारी दे दी। उसदिन वे सारा दिन रोते रहे। उन्होंने कुछ नहीं खाया। रात को फिर पूछा -हमारी तारीख़ कब है?

बेटे ने बताया -१२ तारीख़।

पूछा -आज क्या तारीख़ है ?

बेटे ने कहा -११ तारीख़।

जाने वे क्या सोचते रहे और बड़बड़ाते रहे। आधी रात को वे बेसुध हो गए। १२ तारीख़ को बेटा भी तारीख़ पर नहीं गया। ऐसी हालत में उन्हें छोड़ कर वह नहीं जा पाया। वक़ील ने फ़ोन कर बताया कि केस विधवा के पक्ष में हो गया। ससुरजी बेसुध पड़े थे। वे दो दिन बेसुध ही पड़े रहे। मानो भगवान से लड़ रहे हों, इंसाफ़ के लिए। १४ तारीख़ की शाम वे दुनिया के मोह से मुक्त हो गए और मुक्त हो गए विधवा के जाल से।

 

©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़

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