लेखक की कलम से

अयोध्या मथुरा के बीच उभरता कवर्धा…

’10 दिसंबर को कवर्धा में फहरेगा का 108 फीट का धर्म ध्वज’- छत्तीसगढ़ के समाचार पत्रों में छपी इस आशय की पंक्तियां अचानक पूरे देश का ध्यान आकर्षित कर रही हैं। आखिर क्या कारण है कि कवर्धा में यह धर्म ध्वज फहराया जा रहा है? दो महीने पुरानी बात है छत्तीसगढ़ के एक छोटे से शहर कवर्धा में एक ‘सामान्य’ सी घटना घट गई। 3 अक्टूबर को अचानक कुछ लोगों ने एक खंभे पर लगे भगवा ध्वज को निकाल फेंका, उसे जमीन पर डाला, पैरों से कुचला-  यानि कुल मिलाकर जिस प्रकार से वे ध्वज को अपमानित कर सकते थे, सो किया। जब एक युवक ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उसके साथ मारपीट की गई। रोचक तथ्य तो यह है कि यहाँ पर कोई राजनैतिक दल बीच में न था।


यहां कुछ अतिरेक वादी प्रश्न उठा  सकते हैं कि आखिर धर्म ध्वज सार्वजनिक स्थान पर या सरकारी संपत्ति पर लगाया ही क्यों गया? दरअसल आसपास के कई खंभों पर ये ध्वज कुछ समय पहले हुए किसी धार्मिक आयोजन के तहत लगाए गए थे। अगर नियमों की बात की जाए तो किसी भी सार्वजनिक संपत्ति पर लगे ध्वज बैनर आदि को ससम्मान उतरवाने की जिम्मेदारी नगर निगम की होती है जिसे अन्य महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं के चलते वे प्रायः नहीं कर पाते, जिसे प्रत्येक भारतीय जानता है। ऐसे में वे झंडे और बैनर समय के साथ स्वतः ही अपने अंत को प्राप्त हो जाते हैं। यह कोई विचित्र बात नहीं, देश के प्रत्येक शहर, कस्बे और गांव में यही होता है।

परंतु कवर्धा में शायद कुछ ‘लकड़ियों’ की आवश्यकता थी राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए। तभी योजनाबद्ध तरीके से धर्म ध्वज को एक छोटी सी भीड़ द्वारा अपमानित करने का षड्यंत्र किया गया। रोकने वालों से मारपीट भी की गई। जैसे ही इस घटना की सूचना आग की तरह फैली, लोगों में आक्रोश बढ़ना शुरू हुआ। तुरंत क्षेत्रीय विधायक ने 500 कारों के काफिले के साथ कस्बे में ‘शक्ति प्रदर्शन’ भी कर डाला। इस पूरे घटनाक्रम को सुनकर कोई सामान्य व्यक्ति भी यह कह सकता है कि निश्चित ही यह ‘धर्म नगरी’ कवर्धा को कुछ और ही बनाने की योजनाबद्ध तैयारी थी।

अचानक सारी तैयारियां धरी रह गई और गैंद दूसरे पाले में आ गई यानी अब धर्म ध्वज के पक्ष में सनातन हिंदू समुदाय खड़ा हो गया। जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के दंडी शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने घटना पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर हवाओं का रुख मोड़ दिया। उनके एक आह्वान पर कवर्धा में धर्म ध्वज प्रकरण पर बहुत बड़ा और शांतिपूर्ण जुलूस निकला। इस पूरे घटनाक्रम का सबसे रोचक एवं आश्चर्यजनक पहलू यह था कि न तो स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद स्वयं इस जुलूस का नेतृत्व करने आए और ना ही किसी अन्य राजनीतिक पुरोधा को ऐसा करने का अवसर दिया गया। हाँ, कवर्धा के धार्मिक एवं प्रबुद्ध जनों के पीछे कुछ राजनैतिक चेहरे भीड़ का हिस्सा बने अवश्य दिखाई दिए। यद्यपि कुछ लोगों को गिरफ्तार कर इसे कुचलने की पूरी कोशिश की गई लेकिन आक्रोश बढ़ता गया।

यद्यपि अब इसमें दूसरे पक्ष को असुरक्षित दिखाकर राजनीतिक संभावनाएं ढूँढने की कवायद हो रही है किंतु स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद अपनी ही रौ में कार्य कर रहे हैं। अब 10 दिसंबर को 108 फीट ऊंचे धर्म ध्वज को फहराने का उन्होंने न केवल ऐलान किया है बल्कि इस ध्वज स्थल के लिए बाकायदा जमीन का मूल्य देकर, प्रशासन से अनुमति लेकर इस ध्वजारोहण की प्रक्रिया को पूरी तरह संवैधानिक बना दिया है।

यहां एक और पहलू को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इससे पहले भी स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद हों या उनके गुरु जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती या उनके भी गुरु भाई धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज हों- आंदोलन सभी संतों ने राष्ट्रव्यापी छेड़े, धर्म से जुड़े छेड़े और बहुत ही बड़े स्तर पर छेड़े किंतु परिणाम समान ही रहा। कारण भी समान ही है कि कुछ दस्यु समय-समय पर उनके आंदोलन रूपी खेती के पूरी तरह पक जाने पर न केवल आग लगाते हैं बल्कि बचे हुए दाने भी चुन ले जाते हैं और इन बेचारे भोले भाले साधुओं के हाथ इनके कमंडल की तरह खाली रह जाते हैं।

विडंबना यह है शुद्ध रूप में ईमानदार ये संत सामाजिक, बौद्धिक और धार्मिक मुद्दों पर आंदोलन तो बड़ा सशक्त खड़ा करते हैं, समाज का समर्थन भी प्राप्त करते हैं किंतु अभी तक ये राजनैतिक लाभ लेने में पटु ‘दस्युओं’ का इलाज नहीं जानते। देखना यह है कि कवर्धा का धर्म ध्वज प्रकरण सामाजिक सशक्तिकरण का माध्यम बनता है या फिर से एक और राजनीतिक षड्यंत्र की भेंट चढ़ जाता है। परिणाम चाहे जो भी हो पर धर्म के नाम पर राजनीति की दुकान चलाने वालों के मुंह पर स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने कवर्धा की जनता के साथ मिलकर तमाचा… ना ना.. घूँसा.. ना ना….चलिए जाने दीजिए, पर जो भी हो प्रहार बड़े जोर से किया है।

-डॉ.दीपिका उपाध्याय, आगरा।

(लेखिका एक स्वतंत्र टिप्पणी कार हैं।)

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