लेखक की कलम से

हम बेटियाँ…

सवाल यह नहीं की बेटी को

क्यों नही पढ़ाया

सवाल यह भी नहीं की बेटी को

क्यों नहीं बचाया

सवाल तो है कि खुद में पढ़ने की जागृति को

क्यों नहीं जगाया

सवाल तो है कि स्वयं बचने की योग्यता उसे कभी

क्यों अवगत नहीं कराया

सवाल यह नहीं की बेटी को बेटे समान

क्यों कभी नही माना

सवाल यह भी हैं कि उसे हर पल पराई का

अहसास क्यों दिलाया

सवाल तो बस ये हैं कि क्या बेटी ने बेटे सा

प्यार नहीं किया

सवाल तो बस ये हैं कि क्या बेटे सी पीड़ा से ही माँ ने

उसे जन्म नहीं दिया

सवाल ये नहीं है कि बेटी को दोनों घरों में पराया ही

क्यों बताया गया

सवाल तो बस ये हैं कि जन्म देने वालों ने ही

पराया क्यों बताया

सवाल तो बस ये कि क्या बेटी दिवस बस

एक दिन ही मनाना

सवाल तो बस ये कि क्या बस ही दिन का दिखावा

क्यों एक दिन ही बेटी दिवस मनाना

सवाल तो ये भी है कि संस्कार सिर्फ बेटी को ही

क्या बेटों को नहीं देना

सवाल ये नहीं कि हम बेटियां कब तक बंधेंगी परम्पराओं

की बेड़ियों में जकड़ कर

सवाल ये कि हम आजाद कब होंगी इन परंपराओं

कि जकड़ी बेड़ियों से

कब आखिर कब ..?

-डॉ मंजु सैनी, गाज़ियाबाद

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