लेखक की कलम से

प्रकृति बनाम विकासवाद

21वीं सदी में भारत विकासशील से विकसित देशों की श्रेणी में शामिल हो जाएगा और ऐसे घातक रूप से बढ़ रही भारत की जनसंख्या के विपरीत हो रहा है। भारत के धरातलीय, वेटलैंड एवं सामुद्रिक परिस्थितिकी तंत्र में मानवीय हस्तक्षेप के हानिकारक प्रभाव के चलते विस्फोटक जनसंख्या जैव विविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र पर अत्यधिक दबाव डाल रही है। जैसे जैसे मानव की आधुनिक सभ्यता का विकास होता है। वैसे ही उसकी सभ्यता में समस्या बढ़ने लगती है।

मानव विकास संबंधी गतिविधियों से जैव विविधता के समक्ष उत्पन्न होने वाले प्रमुख खतरों में प्राकृतिक आवासों का विनाश, संसाधनों का अत्यधिक दोहन, रासायनिक अथवा पर्यावरणीय प्रदूषण और जैविक प्रदूषण आदि शामिल है। एक ओर विस्फोटक रूप में बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति करना, वहीं दूसरी ओर जैव विविधता एवं प्राकृतिक परिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना एक प्रमुख राष्ट्रीय चुनौती के रूप में उभर कर आया है। अपने प्राकृतिक संसाधनों और उन पर विकासपरक मानवीय गतिविधियों के प्रभाव के संबंध में एकदम सही विश्वसनीय जानकारी के बिना प्रभावी तरीके से सही समय में इन चुनौतियों का सामना करना असंभव है।

यह कोई नहीं कह सकता, पशु-पक्षियों का उन्मूलन करके तो आदमी ने डार्विन के विकासवाद का सारा खेल ही बिगाड़ दिया है। अगर किसी दुर्घटना से पृथ्वी पर मनुष्य जाति का विलोप हो जाए, तो जगत-नियंता परमात्मा के सामने शायद इतने वैकल्पिक प्राणी ही नहीं बचेंगे कि वह विकास के नृत्य को आगे बढ़ा सके। विकासवाद में यह होना अवश्य है कि सक्षम जंतु अक्षम प्राणियों का सफाया कर देते हैं, लेकिन जानवरों में क्षमता प्रकृति की देन है।

चीते ने किसी दर्जी के यहां जाकर चितकबरा सूट नहीं बनवाया, जिसे पहनकर वह जंगल में छिप सके उसकी चमड़ी उसकी बुद्धि में नहीं उपजी है। कहां से उपजी है, हम नहीं कह सकते, लेकिन जंगल में शिकार करने के लिए आदमी ज़रूर दर्जी से कपड़े सिलवाता है। वह कपड़े ही नहीं, दांत, हाथ, गुर्दे, हृदय, सब कुछ सिलवा सकता है।

बुद्धि की ये विजयें बहुत उम्दा हैं लेकिन प्रश्न यह है कि मनुष्य की बुद्धि ज्यादा ऊंची है या विकासवाद की वह अंधी ताकत ज्यादा ऊंची है, जिसने मनुष्य को वह शरीर दिया, वे इंद्रियां दीं, वह बुद्धि दी, जिनके बूते पर वह विकासवाद का खेल उलट सका? प्रश्न यह भी है कि जब दर्जी, डॉक्टर और एयर कंडीशनर नहीं होंगे और कभी आदमी को चितकबरी चमड़ी की ज़रूरत पड़ेगी, तब क्या वह अंधी प्रेरणा हममें बाकी होगी, जो हमें वातानुकूलित (प्रकृति के अनुकूल) बना सके? और यदि उस अंधी ताकत का मनुष्य में जीवित रहना ज़रूरी है, तो अन्य सभी जानवरों में क्यों नहीं? सक्षमता और अक्षमता के तोल में क्या हम बुद्धि को तराजू पर रख सकते हैं? क्या ऐसा विश्वास स्वागत योग्य है, जिसमें हर पशु-पक्षी का कोटा मनुष्य की ज़रूरतों के अनुसार तय हो, फिर वे चाहे चूहे हों या बंदर हों या कीड़े हों या शेर हों? लेकिन ये प्रश्न और भी तीखे हो जाते हैं, जब आदमी ज़मीन, हवा और पानी को अपने खातिर बदलने लगा।

अतः इन प्राकृतिक संसाधनों एवं प्रक्रिया के संबंध में प्रभावी ज्ञान इनके प्रभावी संरक्षण एव निरंतर उपयोग के लिए आवश्यक है। अर्थशास्त्र जैव विविधता और परिस्थितिकी तंत्र बहुत ही करीबी एव अंतरसंबंधित अवधारणाएं हैं। संभवत सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जैव विविधता अधिकांश मानवीय उपभोग एवं उत्पादन का आधार है। इसी तरह इसका आर्थिक मान भी बहुत अधिक है, और जैव विविधता निम्नीकरण के आर्थिक प्रभाव तो अत्यंत विध्वंसकारी होती हैं। जबकि आर्थिक कारक जैव विविधता को होने वाली क्षति के प्रमुख कारण हैं, यहां तक कि जिस आरंभिक उत्पादन पर वे निर्भर रहते हैं, आर्थिक कारक उसे भी बर्बाद कर देते हैं।

अगर एक बार ये  बर्बाद हो गए तो जिन प्रकृतिक संसाधनों द्वारा  परिस्थितिकी तंत्र में ये विकसित हुए होते हैं, उनकी पुनरउत्पत्ति एवं उनके अनुरूप  बनाना असंभव हो जाता है। इसके अतिरिक्त भी उपलब्धता पर ही निर्भर करता है। अतः आवश्यक है कि इन प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर प्रबंधन एवं उपयोग एवं उपयोग हेतु हम एक व्यवस्था का विकास करें। शुरूआती तौर पर देखा जाए तो भी अर्थशास्त्र  जैव विविधता  संरक्षण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि जब तक लोगों में  जैव विविधता संरक्षण  की  आर्थिक  एवं वित्तीय  समझ  विकसित  नहीं की जाएगी तब तक  व्यक्तियों, परिवारों, उद्योग, कंपनी या फिर सरकार द्वारा ऐसा किया जाना संभव नहीं है।

आज समूचा विश्व वातावरण के संकट का सामना कर रहा है, जिसका यदि हल नहीं हुआ, तो हम विश्वव्यापी आत्महत्या की ओर कदम बढ़ाएंगे। अमेरिका में प्रस्ताव रखा जा रहा है कि एक राष्ट्रीय वातावरण- परिषद बने, जिसकी इजाज़त के बिना न कोई कारखाना खुले, न कचरा फेंका जाए, न वैज्ञानिक आविष्कार हों। विज्ञान अगर इस पृथ्वी को चर कर बंजर और बियाबान बना देगा, तो हमें चांद पर जाने की ज़रूरत नहीं होगी, क्योंकि यह धरती ही एक मृत नक्षत्र बन जाएगी, जहां सब कुछ कृत्रिम रूप से बनाना होगा। जब गरीबी-अमीरी की लड़ाई खत्म हो जाएगी, तब यही लड़ाई बचेगी। कार्ल मार्क्स और पूंजीवाद की जगह निसर्ग और विज्ञान के द्वंद्व की राजनीति शुरू होगी।

अतः हमें अपने व्यक्तिगत   राष्ट्रीय   एव वैश्विक अर्थशास्त्र  में सूचना विज्ञान समर्थित प्रकृतिक संसाधन  अंकेक्षण को शामिल करने की  आवश्यकता है ।

@अजय प्रताप तिवारी चंचल, इलाहाबाद

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