लेखक की कलम से
ख्वाहिशों ने होने न दी सहर
इक कविता लिखनी थी मगर,
ख्वाहिशों ने होने न दी सहर।
हस्तरेखाओं को देखते ही रहे,
ऐसे तो बनता नहीं मुकद्दर।
बेफिक्र अपनों के इंतज़ार में,
खो गई मिली थी जो डगर।
आज वक़्त को याद किया तो,
उसने भी बता दिया लम्बा सफ़र।
खुद के भीतर न झांका था कभी,
आत्मविश्वास से न मिलाई थी नज़र।
मौत से जब सामना हुआ इक रोज़,
बहुत दूर दिखा अपना ही हमसफ़र।
अकेले आए और अकेले जाना होगा,
पता तो था, पर देखा नज़ारा उस पहर।
©कामनी गुप्ता, जम्मू