लेखक की कलम से

निशानेबाज भी बड़ा धनुर्घर क्यों नहीं …

बोधकथा

मैंने सुना है, एक बहुत बड़ा धनुर्धर बादशाह, जिसे बड़ा लगाव था धनुर्विद्या से, अपने स्वर्ण-रथ पर सवार एक गांव से गुजरता था। उस गांव में उसने जो देखा, तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। उसे भरोसा न आया..वृक्षों पर, खलिहानों के दरवाजों पर, दीवारों पर… तीर चुभे थे। कोई बहुत बड़ा निशानेबाज गांव में रहता है। क्योंकि हर तीर ठीक एक वर्तुलाकार निशान के मध्य में लगा था… बिल्कुल मध्य में। एक बार भी कहीं कोई चूक नहीं थी।

सम्राट ने कहा- रथ रोको। मैंने बहुत धनुर्धर देखे हैं, मैं स्वयं भी धनुर्धर हूं; जीवनभर मैंने यही साधना की है लेकिन मेरे भी सौ में, निन्यानबे तीर ही ठीक लगते हैं, एक तो कभी चूक ही जाता है। मगर इस गांव में कौन धनुर्धर है, जिसका हमें पता भी नहीं! जिसका एक तीर नहीं चूका है! दीवारों पर, वृक्षों पर, खलिहानों पर, खेतों पर, जहां भी उसके तीर लगे हैं, ठीक लक्ष्य के बिल्कुल मध्य में लगे हैं! मैं उससे मिलना चाहता हूं। गांव के लोगों से पूछो।’

गांव के लोगों से पूछा, लोग हंसने लगे। लोगों ने कहा कि आप फिजूल की बातों में न पड़ें, अरे वह पगला है, पागल है।

सम्राट ने कहा- पागल हो या कोई भी हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? मुझे उसके पागलपन से कुछ लेना-देना नहीं। मगर मैं उसे पुरस्कृत करूंगा। वह हमारे राज्य का सबसे बड़ा धनुर्धर है। उन लोगों ने कहा- आपको बात ही पता नहीं, वह तीर पहले मारता है और बाद में गोला खींचता है। बीच में लगने का सवाल ही नहीं है, जहां भी लगे…।

दार्शनिक भी बस यही करते रहते हैं। तीर पहले मार दिया, फिर बड़े विचार, सिद्धांत, उनसे गोला खींचते हैं। वर्तुल भी बन जाता है। तीर बिल्कुल मध्य में मालूम लगता है। और लगता है कि बात बड़ी गहरी कही।

©संकलन – अनिल तिवारी, महासचिव व्यापारी महासंघ, बिलासपुर, छत्तीसगढ़

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