लेखक की कलम से

गेहूँ का दाना …

 

 

मैं इक दाना गेहूँ का

अपनी कथा सुनाता हूँ

मिट्टी में पैदा होता हूँ

सोना मैं कहलाता हूँ |

मैं इक दाना —–

 

उस पैदा करने वाले के

मन की व्यथा सुनाता हूँ

पानी नहीं पसीने से

मैं तो सींचा जाता हूँ

मैं इक दाना —-

 

है ख़ाली हाथ बोने वाला

उसे खून के आंसू रुलाता हूँ

धनवानों के गोदामों में

पड़ा -पड़ा सड़ जाता हूँ |

मैं इक दाना —-

 

रोटी को तरसे अन्नदाता

मैं बिस्कुट में मुस्काता हूँ

मोल उसकी मेहनत का

कहाँ उसे लौटता हूँ ?

मैं इक दाना —-

 

बैसाख के सुनहरे मौसम में

मै जब पूरा पक जाता हूँ

उस सच्चे चेहरे पर तब भी

मुस्कान नहीं ला पता हूँ |

मैं इक दाना —-

 

बचकर आंधी -तूफानों से

मैं उसके घर जाता हूँ

उतारते -उतारते क़र्ज़ उसका

मैं कहाँ बच पता हूँ ?

मैं इक दाना ———-

 

उस लाचार -भूखे हलधर का

मैं एक रूप बन जाता हूँ

भर कर औरों के पेट

मैं खुद सूली चढ़ जाता हूँ |

मैं इक दाना गेहूँ का —-

मैं इक दाना गेहूँ का —

 

 

©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़

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