लेखक की कलम से
चलन …
कविता
महसूस करती हूँ
खुद को मूर्ख -सा
कि फ़िक्र करती हूँ
दूसरों की सदा
फ़िक्र करना ,कराना
अब चलन में नहीं रहा –
स्वार्थी हो जाना
चाहिए मुझे भी
पूछना हाल दूसरों का
और अपना बताना
अब चलन में नहीं रहा –
ज़रूरी है बहुत
व्यावहारिक हो जाना
सच सुनना ,सुनाना
अब चलन में नहीं रहा –
हो गई दीवारें
सब बहुत ऊँची
खिड़कियां दिलों में
रखना ,रखाना
अब चलन में नहीं रहा –
देखा जाएगा तुम्हारा
रुतबा और औदहा
इंसान होना और
इंसानियत दिखाना
अब चलन में नहीं रहा –
©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़