लेखक की कलम से
दाल बाटी मां का स्वाद ….
दाल बाटी
मां चौके में चूल्हे पर कुछ न कुछ सेकती थी
कभी चांद सी आटे की लोई लेकर बेलन घुमाती
मसाले संग सत्तु भर बाटी को हथेली पे नचाती
मेरी आंखे एकलव्य की तरह बाटी को देखती थी।
शुद्ध देशी घी में मां जब बाटी को नहलाती
फिर मेरी आंतो में चूहे तेजी से दौड़ लगाते
मानो छठी इंद्रियों को भी सुगंधित एहसासों से जगाते
बैंगन वाले चोखे की तैयारियों में मेरी बेसब्री को बहलाती।
फिर क्या कहना मां जब तुम गाढ़ी दाल धीमी आंच पे चढ़ाती
वो खूश्बू, वो स्वाद, वो चांद सी बाटी सब कुछ मन हरता
मेरे भीतर अपनापन प्रसन्नता तृप्ति और आत्मसंतुष्टि भरता
तुम दाल बाटी चोखा वाली ममता परोस मेरी भूख और बढ़ाती।
मां मुझे भी सीखा दो दाल बाटी अपने हाथों का हुनर,
मनमोह ले ऐसा जायका जैसे हवा में उड़े राजस्थानी चुनर।
©अंशिता दुबे, लंदन